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________________ योगबिन्दु के रचयिताः आचार्य हरिभद्रसूरि (आ) भवविरह सूरि हरिभद्र हरिभद्र के पाकिनी महत्तरा सूनुः उपनाम के साथ-साथ एक और दूसरा विशेषण भी प्रसिद्ध है । वह है- 'भवविरह' । स्वयं हरिभद्रसूरि ने अपनी कई रचनाओं में अपने को इस पद से उपलक्षित किया है ।" इनमें 'योगबिन्दु', 'योगशतक', 'योगदृष्टि समुच्चय'' तथा 'धर्मबिन्दु's की अन्तिम गाथा प्रमाण रूप में दी जा सकती है । इस 'भवविरह' के पीछे इनका कौनसा अभिप्राय विशेष रहा, इसका उन्होंने कहीं भी उल्लेख नहीं किया है परन्तु उनके जीवन दर्शन का समवेक्षण करने से कुछ-कुछ ज्ञात होता है कि इसका श्रेय सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रकृष्टतम रचना कहावली को है जिसमें पद-पद पर उक्त विरह से अपने को इंगित किया है । भवविरह शब्द के साथ विद्वानों ने मुख्यतया जिन तीन घटनाओं को जोड़ा है, वे यों हैं १. २. ३. ४. 51 ( १ ) धर्म स्वीकार का प्रसंग (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग (३) याचकों को दिए जाने वाले आर्शीवाद और उनके द्वारा किए जाने वाले जय-जयकार का प्रसंग पण्डित कल्याणविजय ने धर्म संग्रहणी की प्रस्तावना में, पृ० ६ से २१ पर जिन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में 'भवविरह' या 'विरह' शब्द का प्रयोग है, सभी प्रशस्तियां उद्धृत की हैं । उनमें अष्टक, ललितविस्तरा, अनेकान्तजयपताका पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षोडषक, संसारदावानल, उपदेशपद, पंचाशक, सम्बोध प्रकरण, योगबिन्दु आदि हैं भवान्ध्यविहरात् तेन जनस्ताद् योगलोचनः । योगबिन्दु श्लोक ५२७ ऐसा चि भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य । योगशतक गा० १०१ मात्सर्यविरहेणोच्चैः श्रेयोविघ्नप्रशान्तये | योगदृ० समु० श्लो २२८ श्लोक ४८ ५. स तत्र दुःखविरहादत्यन्तसुखसंगतः । धर्मविन्दु, अध्याय, ६. हरिभद्दो भणइ भयवं पिउमे भवविरहो । कहावली पत्र ३०० चिरजीवर भवविरह सूरिति । वही पत्र ३०१ अ ७. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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