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योगबिन्दू के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
को श्रेष्ठता शुद्ध से विशुद्धतर होती गई, उनका कठोर परिश्रम, दृढ़निष्ठा और गुरुभक्ति ने अल्प समय में ही उन्हें समन जैन सिद्धान्तों का सूक्ष्म ज्ञाता बना दिया। उनकी संघ-सेवा और अनुपम योग्यता तथा पवित्र मुनि जीवन में विशुद्ध आस्था ने उन्हें अल्प समय में ही आचार्य बना दिया। (अ) याकिनी महत्तरा सूनु हरिभद्रसूरि
हरिभद्रसूरि के धर्म परिवर्तन में साध्वी याकिनी महत्तरा का महान् संयोग था । अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी आपको अपनी धर्म माता के रूप में स्धीकृत किया था और वे अपने को 'याकिनी महत्तरा सूनु, कहकर गौरव का अनुभव भी करते थे।
यद्यपि हरिभद्रसूरि के इस धर्म परिवर्तन के प्रसंग का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी अनेक विद्वानों ने हरिभद्र से सम्बन्धित ग्रंथों का सम्पादन करते समय इसका उल्लेख किया है। उनमें डा० याकोबी का नाम प्रमुख है । इन्होंने लिखा है कि 'आचार्य हरिभद्रसूरि को जैनधर्म का इतना गम्भीर ज्ञान होने पर भी अन्यान्य दर्शनों का इतना गहन और तत्त्वग्राही तलस्पर्शी ज्ञान था, जो उस काल में एक ब्राह्मण को ही परम्परागत शिक्षा दीक्षा के रूप में प्राप्त होना स्वाभाविक था, अन्य को नहीं।'
हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनुः ऐसे विशेषण का प्रयोग न किया होता, तो उनके जीवन में घटित यह असाधारण क्रान्ति की सूचना उत्तरकाल में जिज्ञासुओं का मनस्तोष न कर पाती और दूसरे यह मुख्य परम्परा से प्राप्त न होकर शायद एक मात्र दन्त कथा के रूप में विश्वास व अविश्वास की छाया से तिरोहित ही रह जाती।
१. दे० हरि०प्रा० क०सा० आ० परि०, पृ० ४६ २. समाप्ता चेयं शिष्यहितानामावश्यक टीका । कृति सिताम्बराचार्य जिन भट्ट
निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य । आन्टीका प्रशस्ति तथा विशेष के लिए दे० समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि, पृ० १२
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