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'प्रज्ञा सुत्तविनिच्छनी'६५-प्रज्ञा द्वारा श्रुत का विशेष निश्चय होता है। बाधक है स्नेह
स्नेह अर्थात् चिपकना। जहां चिपकना है, वहां संकीर्णता है। संकीर्णता से मूल रूप विलुप्त हो जाता है। इसलिए ममत्व भाव का भेदन किए बिना मुक्ति संभव नहीं। क्योंकि_ 'नेहपासा भयंकरा' उत्तर. २३/४३
स्नेह भयंकर पाश है। 'स्नेहमूलानि दुःखानि ६६ स्नेह दुःख का मूल कारण है। सुत्तनिपात में कहा
'संगो एसो परित्तमेत्थ सौख्यं अप्पऽसादो दुक्खमेत्थ भिय्यो'६७
स्नेह दुःख प्रसूति का हेतु है। यह संग सीमित सुख देने वाला है, अल्प-स्वाद है, विपुल दुःखप्रद है। प्रशस्त स्नेह भी आत्मा की मुक्ति में बाधक है। महावीर के प्रति गौतम का स्नेह ही गौतम की केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक बना। विक्तवास
मुनि की साधना की पूर्णता एवं भिक्षु जीवन की सफलता एकान्तवास पर निर्भर है -
'विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो' उत्तर. ३२/१६
मुनियों के लिए विविक्तवास प्रशस्त कहा गया है। जैन सिद्धांत
जैन दर्शन वीतरागता का दर्शन है। इसलिए जैन दर्शन को आत्मवाद, कर्मवाद आदि कुछ ऐसे सिद्धांत विरासत में मिले हैं, जो अपनी मौलिक विशेषता रखते हैं। कर्मवाद की गहराई में जाकर हम अपने आपको समझ सकते हैं तो दूसरी ओर स्वयं सत्य की खोज के द्वारा अमूर्त आत्मा का प्रत्यक्षीकरण भी कर सकते है। उत्तराध्ययनकार ने ऐसे गहन सिद्धान्तों को सूक्तियों के माध्यम से समझाया है। अविनाशी आत्मा
महर्षि यास्क ने आत्मा शब्द को 'अतति सततं गच्छति व्याप्नोति वा
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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