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परम संतोष का उदय होता है। ऐसा वीर्य व उत्साह प्राप्त होता है कि उसके लिए कोई कार्य दुष्कर नहीं रहता
इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं । उत्तर. १९/४४ इस लोक में जो पिपासा रहित है, अनासक्त है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है।
दुःख का मूल
अतुल वीर्य एवं शौर्य की प्रदात्री अनासक्ति के परिणाम से सभी दुःख दूर हो जाते हैं। रचनाकार का स्पष्ट उद्घोष है कि आसक्ति सभी दुःखों का मूल है.
'कामाणुगिद्विप्यभवं खु दुक्खं' उत्तर. ३२ / १९
कामभोगों की अभिलाषा से दुःख उत्पन्न होता है।
सहिष्णुता
लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों में सम रहना, इन्हें सहन करना सहिष्णुता है। इनमें एक रूप रहेगा वही मोक्ष मार्ग की ओर आगे बढ़ सकता है। इसलिए कहा गया है
'पियमप्पियं सव्व तितिक्खज्जा' उत्तर. २१/१५
भिक्षु प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे। भारवि ने सहन करने को सब दृष्टि से सिद्धि-प्रदान करने वाला कहा है
'न तितिक्षासममस्ति साधनम्' ,६२ - सहनशीलता जैसा कोई अन्य साधन नहीं। बाण ने 'क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्' २ - सब तपस्याओं का मूल क्षमा को माना ।
,६३
प्रज्ञा
धर्म का सम्बन्ध प्रज्ञा से है। प्रज्ञाहीन पुरुषार्थ द्वारा धर्म के यथार्थ स्वरूप का आकलन नहीं किया जा सकता। उत्तराध्ययन के कर्त्ता ने इसका सही अंकन किया है -
'पण्णा समिक्ख धम्मं' उत्तर. २३/२५
धर्म की समीक्षा प्रज्ञा से होती है। सुत्तनिपात में प्रज्ञामय जीवन को ही श्रेष्ठ जीवन कहा है- 'पञाजीविं जीवितमाहु सेट्ठ।'
,६४
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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