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११. बहुस्सुयपूया
प्रस्तुत अध्ययन के प्रारंभ में विनीत-अविनीत की कसौटी का निरूपण कर फिर बहुश्रुत की भावपूजा का वर्णन है। इस अध्ययन के आधार पर बहुश्रुतता का प्रमुख कारण विनय है और बहुश्रुत का मुख्य अर्थ चतुर्दशपूर्वी है। १२. हरिएसिज्जं
इस अध्ययन में चाण्डाल-कुल में उत्पन्न मुनि हरिकेशी के उदात्त चरित्र का वर्णन हुआ है। इसमें मुनि और ब्राह्मणों के बीच हई वार्ता के माध्यम से ब्राह्मण-धर्म और निर्ग्रन्थ-प्रवचन का सार, कर्मणा जातिवाद की स्थापना, तप का प्रकर्ष तथा अहिंसक यज्ञ की श्रेष्ठता का भी प्रतिपादन हुआ है। १३. चित्तसंभूइज्जं
चित्त और संभूत नामक दो भाइयों के सुख-दुःख के फलविपाक की चर्चा का इस अध्ययन में प्रतिपादन है। दोनों की छः जन्मों की पूर्वकथा का संकेत भी है। निदान के कारण भोगासक्त संभूत के जीव का पतन व संयम में रत चित्त मुनि का उत्थान बताकर प्राणियों को धर्म की ओर अभिमुख होने का तथा निदान नहीं करने का उपदेश दिया गया है। १४. उसुयारिज्नं
इस अध्ययन का प्रधान पात्र भृगु-पुरोहित का परिवार है। लोकपरंपरा में राजा की प्रधानता के कारण इसका नाम 'इषुकारीय' रखा गया है। इसमें दोनों पुरोहित कुमार, पुरोहित, उसकी पत्नी यशा, इषुकार राजा व रानी कमलावती-इन छहों व्यक्तियों के अभिनिष्क्रमण की चर्चा है। इस अध्ययन से ब्राह्मण-संस्कृति तथा श्रमण-संस्कृति की मौलिक मान्यताएं भी स्पष्ट होती हैं। इसका प्रतिपाद्य अन्यत्व भावना का उपदेश है। १५. सभिक्खुयं
इसमें भिक्षु के गुणों का वर्णन हैं। साथ ही दार्शनिक तथा सामाजिक तथ्यों का संकलन भी है। उस समय कुछ श्रमण और ब्राह्मण मंत्र चिकित्सा, विद्याओं के प्रयोग आजीविका आदि चलाने में करते थे। इस अध्ययन में जैन श्रमण के लिए ऐसा करने का निषेध किया गया है।
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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