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१६. बंभचेरसमाहिठाणं
इस अध्ययन में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए दस ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानोंशयन-आसन, कामकथा, चक्षुगृद्धि आदि का मनोवैज्ञानिक ढंग से निरूपण किया गया है। १७. पावसमणिज्नं
इसकी २१ गाथाएं पापश्रमण (ज्ञान आदि आचारों का सम्यक् पालन न करने वाला) कौन होता है?-इसका मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है। १८. संजइज्ज
___ इसमें कांपिल्य नगर के राजा संजय की दीक्षा का वर्णन है। प्रसंगवश भरत, सगर आदि चक्रवर्ती तथा दशार्णभद्र, विजय आदि नरेश्वरों की प्रव्रज्या का भी उल्लेख है। भौगोलिक दृष्टि से दशार्ण, कलिंग, पांचाल आदि देशों का नामोल्लेख भी हुआ है। १९. मियापुत्तिनं
जाति-स्मृति ज्ञान के माध्यम से पूर्व-जन्म की घटनाओं का प्रत्यक्ष कर मृगापुत्र भोगों को छोड़ प्रव्रज्या के लिए माता-पिता से अनुज्ञा मांगता है| माता-पिता श्रामण्य की कठोरता का प्रतिपादन करते हैं जबकि मृगापुत्र साधु के आचार के प्रतिपादन के साथ पूर्व में भोगी नारकीय वेदनाओं का वर्णन करता है। अंत में अनुज्ञा प्राप्त कर संयम ग्रहण करके मृगापुत्र सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है। २०. महानियंठिज्नं
महानिर्ग्रन्थ का अर्थ है-सर्वविरत साधु। इसमें सर्वविरत साधु अनाथी तथा मगध सम्राट् श्रेणिक के बीच नाथ-अनाथ को लेकर हुए रोचक संवाद का वर्णन है। २१. समुद्दपालीयं
इस अध्ययन में आत्मानुशासन के उपायों के साथ-साथ समुद्रयात्रा का उल्लेख है। 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा'-इस चिंतन से समुद्रपाल की दृष्टि स्पष्ट हो जाती है, वह दीक्षित हो जाता है। इस अध्ययन में प्रयुक्त 'वज्झमंडणसोभाग' शब्द उस समय के
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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