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७. उरन्भिज्ज
उरभ्र (बकरा) के दृष्टान्त के आधार पर इस अध्ययन का नामकरण 'उरब्भिज' हुआ है। इसमें दृष्टान्त शैली से गहन तत्त्व की अभिव्यक्ति
इसका मुख्य प्रतिपाद्य उरभ्र के दृष्टान्त से भोगों के कटु-फल का निदर्शन है। श्रामण्य का आधार अनासक्ति है। जो रसों में आसक्त होता है वह दुःख से मुक्त कभी नहीं हो सकता। जो अनासक्त है वह विषयों को अपने वश में कर दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
इसी अध्ययन में काकिणी और आम्रफल के दृष्टान्त से मोहवश छोटे सुख के लिए बड़े सुखों से वंचित रह जाने की मानसिकता की ओर इंगित किया है। आत्मिक सुख महान है, पदार्थ सुख तुच्छ है। अल्प के लिए बहुत की हानि न करें-यही इसका संदेश है। ८. काविलीयं
इस अध्ययन के प्ररूपक कपिलऋषि ने बीस गाथाओं में लाभ और लोभ की परंपरा-चक्र का सजीव चित्रण किया है। इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है-उस सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अन्त हो जाए। ९. नमिपव्वज्जा
राज्य-धर्म के प्रतिपक्ष में आत्म-धर्म के तत्त्वों की प्रस्तुति इसका मुख्य लक्ष्य है। इसमें संयम के लिए तत्पर राजर्षि नमि एवं ब्राह्मणवेषधारी इन्द्र का संवाद-शैली में सुन्दर चित्रण है। इन्द्र मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों को उपस्थित करते हैं तथा राजर्षि उनका समाधान देते हैं। दृढ़ संकल्प के महत्त्व को भी इस अध्ययन में उजागर किया गया है। १०. दुमपत्तयं
महावीर के प्रथम गणधर गौतम की विचिकित्सा का निराकरण करने के लिए इस अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है। यह अध्ययन जीवन की क्षणिकता, मनुष्यभव की दुर्लभता, शरीर व इन्द्रिय-बल की उत्तरोत्तर क्षीणता, स्नेह दूर करने की प्रक्रिया तथा भोगों का पुनः स्वीकार न करने की प्रेरणा आदि का निदर्शन कराता है। इसमें गौतम को सम्बोधित कर प्रतिक्षण अप्रमत्त रहने की प्रेरणा दी गई है।
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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