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________________ सूत्रकार ने विनीत को वह स्थान दिया है, जो हर किसी को सहज प्राप्त नहीं है- 'हवई किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा।' (उत्तर. १/४५) जैसे पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार है वैसे ही विनीत शिष्य धर्माचरण करने वालों के लिए आधार होता है। २. परीषह पविभत्ती संयमी जीवन में प्राप्त होने वाले २२ परीषहों को सहन करने का निर्देश इसमें हैं। सहन करने के प्रयोजन (स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने एवं निर्जरा) को ध्यान में रखते हुए साधक परीषहकाल में दृढ़तापूर्वक आत्मचिन्तन करता है। ३. चाउरंगिज्जं जीवन में चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन इस अध्ययन में हुआ है। वे चार तत्त्व हैं-मनुष्यता, धर्मश्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम। ४. असंखयं अप्रमत्तता इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। जीवन का संधान नहीं किया जा सकता, प्राण छूटने के बाद जोड़ा नहीं जा सकता। अतः व्यक्ति को प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह अध्ययन भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त रहने का उपदेश देता है। कर्मों का फल नहीं है-इस प्रकार की मिथ्या मान्यताओं का निरसन भी इसमें हुआ है। ५. अकाममरणिज्जं नियुक्ति में इसका नाम 'मरणविभक्ति' मिलता है। मृत्यु भी एक कला है। विवेकी पुरुषों का मरण सकाममरण है। अज्ञानियों का मरण अकाममरण है। अंतिम अवस्था के प्रति व्यक्ति किस रूप में जागरूक रहे इसका पथदर्शन इस अध्ययन में मिलता है। ६. खुड्डागनियंठिज्ज इसमें मुनि के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि त्याग का संक्षिप्त निरूपण है| संसार में दुःख कौन पैदा करता है? इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा-जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। अतः विद्या और आचरण की समन्विति का संदेश यह अध्ययन देता है। उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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