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उत्तराध्ययन को श्रमण काव्य कहा है। धर्मोपदेश और आध्यात्मिकता की प्रधानता होते हुए भी यह कृति काव्य कैसे है? इसका विवेचन आवश्यक है। ___काव्यशास्त्र की व्युत्पत्ति 'कवि' शब्द से होती है। 'कु' वर्णने धातु से कवि शब्द निष्पन्न होता है। कवि अपने वैशिष्ट्य एवं महत्त्व के लिए हमेशा समादृत होता रहा है। प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में कवि शब्द का प्रयोग आत्मद्रष्टा या क्रान्तद्रष्टा के अर्थ में किया गया है
कविं शशासुः कवयोऽदब्धा निधारयन्तो दु-स्वायोः। अतस्त्वं दृश्याँ अग्न एतान् पभिः पश्येरद्भुतां अर्य एवः॥१८ अग्निपुराण कवि की प्रशस्ति में कहता है - अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः। यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।। भवभूति ने कवियों की वंदना करते हुए कहा - इदं कविभ्यः पूर्वेभ्यः नमोवाकं प्रशास्महे। विन्देम देवतां वाचममृतामात्मनः कलाम्॥
उक्त प्रकार से प्रशंसित कवि-कर्म को काव्य कहा जाता है। काव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया- 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।
काव्यजगत की इन्हीं विशेषताओं को अपने में समेटे हुए होने के कारण विद्वानों की दृष्टि में उत्तराध्ययन श्रमण-काव्य है।
उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं। १६३८ श्लोक तथा ८९ सूत्र हैं। इनमें साधु के आचार-विचार एवं तत्त्वज्ञान का सहज एवं सरल शैली में वर्णन है। उत्तराध्ययन के वर्तमान अध्ययनों के जो नाम समवायांग व उत्तराध्ययन नियुक्ति में मिलते हैं, उनमें कुछ अंतर भी है। अध्ययनों का संक्षिप्त परिचय १. विणयसुयं
इस अध्ययन की ४८ गाथाओं में विनय का सर्वांगीण विवेचन है। विनीत एवं अविनीत शिष्यों के गुण-दोष के वर्णन सह गुरु-शिष्य का आपस में सम्बन्ध कैसा होना चाहिए-इसका निदर्शन भी इस अध्ययन में प्राप्त है।
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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