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ऐ > इ
चैत्राष्विनयोः > चित्तासोएसु (२६/१३)
ऐ > अइ
वैदेहीम् > वइदेही (९/६१) औ > ओ
सर्वौषधिभिः > सव्वोसहीहि (२२/९) कौतक > कोउय (२२/९) पौषे > पोसे (२६/१३)
अवमौदर्यम् > ओमोयरियं (३०/१४) औ > उ
रौद्रे > रुद्दाणि (३०/३५) 'ऋ' का परिवर्तन
प्राकृत भाषा में 'ऋ' स्वर का स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं होता है फिर भी प्राकृत भाषा-वैज्ञानिकों एवं वैयाकरणों के मध्य यह चर्चित रहा है। जब संस्कृत के रूपों का ध्वनि-परिवर्तन कर उसे प्राकृत रूप दिया जाता है तब वहां 'ऋ' का अनेक रूपों में परिवर्तन प्राप्त होता है। यथा -
ऋ> अ
सुहृतम् > सुहडे (१/३६) मृतम् > मडे (१/३६) सुकृतम् > सुकयं (१/४४) घृतसिक्तः > घयसित्त (३/१२) कृतानाम् > कडाण (४/३) कृताञ्जलिः > कयंजली (२०/५४)
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कृत्वा > काउं (२२/३५)
ऋ
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परिगृह्य > परिगिज्झ (१/४३) कृत्यानाम् > किच्चाणं (१/४५) पृष्ठतः > पिट्ठओ (२/१५)
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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