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हे राजर्षि ! आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता है। आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है। आश्चर्य है तुमने माया को दूर किया है। आश्चर्य है तुमने लोभ को वश में किया है।
यहां देवेन्द्र द्वारा नमि की स्तुति करते समय राजर्षि का उत्कृष्ट चरित्र तथा क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय चतुष्क को अपने अधीन करने से नमि का आत्मिक ऐश्वर्य सामने आता है। संयमी के पग-पग निधान
महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन में अनाथी मुनि की शारीरिक संपदा के वर्णन के समय उदात्त अलंकार दर्शनीय है--
अहो ! वण्णो अहो ! रूवं, अहो ! अज्जस्स सोमया। अहो ! खंती अहो ! मुत्ती, अहो ! भोगे असंगया। उत्तर. २०/६
आश्चर्य ! कैसा वर्ण और कैसा रूप है, आर्य की कैसी सौम्यता है, कैसी क्षमा और निर्लोभता है, भोगों में कैसी अनासक्ति है।
उपर्युक्त गाथा में शारीरिक एवं साधनागत उत्कृष्टता अभिव्यंजित है। * अर्थान्तरन्यास अलंकार
सामान्य का विशेष के साथ अथवा विशेष का सामान्य के साथ समर्थन करना अर्थान्तरन्यास अलंकार है। इसके पुरस्कर्ता आचार्य भामह हैं। बाद में लगभग सभी आचार्यों ने इसका निरूपण किया।
उत्तराध्ययन में अर्थान्तरन्यासइच्छा उ आगाससमा अणन्तिया
सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।, नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणंतिया॥
उत्तर. ९/४८ कदाचित् सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
अपार संपत्ति का स्वामी हो जाने पर भी लोभी मनुष्य की तृष्णा जीर्ण नहीं होती है। भर्तृहरि के शब्दों में 'तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।' हम स्वयं
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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