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जीर्ण हो जाते हैं फिर भी धन तृप्ति का अनुभव नहीं करा सकता। क्योंकि इच्छाएं द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जाती हैं, उनका कोई अंत नहीं है।
यहां प्रथम तीन पादों में प्रस्तुत सामान्य बात मानवीय स्वभाव की दुर्बलता का विशेष-इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया-से समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है। शांत-रस का पूर्ण परिपाक भी यहां दर्शनीय है। कर्मफल की अनिवार्यता
पसुबंधा सव्ववेया जटुं च पावकम्मुणा। न तं तायंति दुस्सीलं, कम्माणि बलवंति ह॥ उत्तर. २५/२८
जिनके शिक्षा-पद पशुओं को बलि के लिए यज्ञस्तूपों से बांधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु-बलि आदि पाप कर्म के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ दुःशील सम्पन्न उस यश-कर्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान होते हैं।
__ पापकर्म से बन्धन होता है, मुक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हिंसा सम्पृक्त कर्मों से कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि कर्म-भोग अनिवार्य है, इसी तथ्य का प्रतिपादन 'कम्माणि बलवंति ह' इस अंतिम चरण के द्वारा किया गया है। * उल्लेख अलंकार
ज्ञाता या विषय भेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन उल्लेख अलंकार है।
जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं । उत्तर. २३/६८
जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। प्रस्तुत गाथा में धर्म के साभिप्राय चार विशेषण प्रयुक्त किए गए। धर्म द्वीप है। द्वीप रक्षा का द्योतक है। श्रुत धर्म तथा चारित्र धर्म द्वारा संसार चक्र में भटके प्राणियों की संसार-समुद्र से रक्षा होती है, इसलिए धर्म द्वीप है। इन्द्रिय-विषयों में आसक्त, विश्रृंखलित लोगों को धर्म प्रतिष्ठित करता है, उनकी चंचलता की निवृत्ति करता है, अतः धर्म प्रतिष्ठा है। धर्म मोक्ष का हेतु होने से, मोक्ष की ओर ले जाने के कारण गति है। 'श
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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