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हरिकेशी मुनि सभी जीवों के मंगल कल्याण में रत थे। उन्होंने त्याग, तपस्या, द्वारा विश्व कल्याण के लिए संयम को संवर्धित किया । इसलिए 'भूइपन्ना' सार्थक विशेषण प्रयुक्त किया गया ।
इसी प्रकार उन्हें ख्याति / यश के लिए 'महाजसो, अचिन्त्य शक्तिसम्पन्नता के लिए ‘महाणुभागो', दुर्धर महाव्रतों को धारण करने के कारण 'घोरव्वओ' कषायों को जीतने का प्रचुर सामर्थ्य होने के कारण 'घोरपरक्कमो', योगजन्य विभूति के कारण 'आसीविसो', उग्र तपस्या करने के कारण 'उग्गतवो' आदि विशेषणों से विशेषित किया गया ।
ये सभी विशेषण साभिप्राय होने से यहां परिकर अलंकार है ।
मृगापुत्रीय अध्ययन में मृगापुत्र के लिए बलभद्र राजा का ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण 'जुवराया', भविष्य में उपशमशील व्यक्तियों का ईश्वर होने के कारण 'दमीसरे', राजसिक सुखों का स्वामी होने से 'सकुमालो', स्वच्छ रहने के कारण 'सुमज्जिओ' आदि विशेष अभिप्राय युक्त विशेषणों का प्रयोग प्राप्त है।
इसी अध्ययन में संयत श्रमण के लिए महाव्रती होने से 'तवनियमसंजमधरं', शील- समृद्धता की दृष्टि से 'सीलड्ढ' तथा अनेक कारण 'गुणआगरं' शब्दों का प्रयोग किया गया है।
धारको * काव्यलिंग अलंकार
जब वाक्यार्थ या पदार्थ किसी कथन का कारण हो तो काव्यलिंग अलंकार होता है। आचार्य मम्मट ने लिखा है- 'काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता ७२ जहां पर कारण एवं कार्य हो वहां काव्यलिंग होता है ।
उत्तराध्ययन में काव्यलिंग के अनके उदाहरण मिलते हैं।
शारीरिक कांति से दैदीप्यमान
'महज्जुई पंचवाई पालिया' उत्तर. १/४७
विनीत शिष्य पांच महाव्रतों का पालन कर महान तेजस्वी हो जाता है। यहां पांच महाव्रतों का अखण्ड पालन कारण है, जिससे शिष्य तेजस्विता को प्राप्त होता है। इसलिए यहां काव्यलिंग अलंकार है ।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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