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________________ उत्तराध्ययन अंग-बाह्य आगम है तथा यह मूल सूत्र के अंतर्गत परिगणित होता है। उत्तरज्झयणाणि की भूमिका में आचार्य श्री तुलसी ने लिखा है-दशवैकालिक और उत्तराध्ययन मुनि की जीवन-चर्या के प्रारंभ में मूलभूत सहायक बनते हैं तथा आगमों का अध्ययन इन्हीं के पठन से प्रारंभ होता है। इसीलिए इन्हें 'मूलसूत्र' की मान्यता मिली, ऐसा प्रतीत होता है। डॉ. शुबिंग का अभिमत भी यही है। मुनि के मूल गुणों-महाव्रत, समिति आदि का निरूपण होने से भी इन्हें 'मूलसूत्र' की संज्ञा दी गई। उत्तराध्ययन : रचनाकाल एवं कर्तृत्व उत्तराध्ययन का रचनाकाल एवं कर्तृत्व पर 'उत्तरज्झयणाणि भाग२' में आचार्य महाप्रज्ञ ने शोध एवं समीक्षात्मक विवेचन किया है। उत्तराध्ययन का कर्ता कौन है? इस प्रश्न पर नियुक्तिकार का कथन है कि उत्तराध्ययन एक-कर्तृक नहीं है। कर्तृत्व की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन चार भागों में विभक्त हैं - १. अंगप्रभव-दूसरा अध्ययन २. जिन-भाषित-दसवां अध्ययन ३. प्रत्येकबुद्ध-भाषित-आठवां अध्ययन ४. संवाद समुत्थित-नवां, तेईसवां अध्ययन उत्तराध्ययन की मूलरचना से उसके कर्तृत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है दूसरे अध्ययन का प्रारंभिक वाक्य है-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया । सोलहवें अध्ययन की शुरूआत में कहा है-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता। उनतीसवें अध्ययन के प्रारंभ में कहा है-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए। - इससे निष्कर्ष निकलता है कि दूसरा एवं उनतीसवां अध्ययन महावीर द्वारा (जिनभाषित) व सोलहवां अध्ययन स्थविर द्वारा विरचित हैं। उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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