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धर्म उस नगरी की रक्षा के लिए सुदृढ़ किला है। अनशन, ऊनोदरी आदि बाह्य तप तथा आश्रव को रोकने के लिए संवर उस कोट की आगल है। कोट की रक्षा के लिए बुर्ज, खाई, और शतघ्नी शत्रुओं से अजेय मन, वचन, काय, गुप्ति है। उससे कर्म रूपी शत्रु श्रद्धा रूपी नगरी में प्रवेश नहीं कर सकते। यहां मूर्त पर अमूर्त्तत्व का आरोप हुआ है।
इस रूपक में नगर-रक्षा के उपकरण परकोटा, बुर्ज, खाई, शतघ्नी आदि को आत्म-रक्षा के उपकरण श्रद्धा, तप, संयम, क्षमा रूप में बताकर कवि की कल्पना-शक्ति जीवंत हो उठी है। प्रशस्त होम
वैदिक परम्परा कर्मकाण्ड प्रधान थी। यज्ञ-याग आदि की परम्परा प्रचलित थी। जैन दर्शन में बाह्य यज्ञ आदि के कोई उपचार न थे। लेकिन जब सम-सामयिक भाषा में जैन दर्शन की प्रस्तुति की आवश्यकता समझी गई तो आध्यात्मिक यज्ञ की कल्पना की प्रस्तुति करते हुए हरिकेशी मुनि ने कहा
'तवो जोइ जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं। कम्म एहा संजमजोगसंती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं।'
उत्तर. १२/४४ __ इस गाथा में कवि की कल्पना-रूपक की शैली प्रशंसनीय है। मुनि षट्-जीवनिकाय के रक्षक होते हैं। यज्ञ आदि कार्य कैसे करें ? हरिकेशी मुनि अहिंसक होम की बात करते हुए कहते हैं
तप ज्योति है। जीव ज्योतिस्थान है। योग घी डालने की करछियां हैं। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म ईंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है। इस प्रकार मैं ऋषि-प्रशस्त होम करता हूं।
यहां रूपकात्मक भाषा में वैदिक परम्परा के यज्ञ की सामग्री से यज्ञ की बात न कहकर भावयज्ञ की सामग्री से प्रशस्त यज्ञ की बात कह तप पर ज्योति का आरोप, जीव पर ज्योति-स्थान आदि का आरोप किया गया है। तप रूपी ज्योति से ही आत्मा कर्मग्रन्थियों का छेदन कर शाश्वत सुख की ओर अग्रसर हो सकता है!
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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