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________________ ये औचित्यपूर्ण उपमान सहज ही हृदय को छूने वाले हैं। इनकी काव्यभाषा विभिन्न भावों, विचारों, अनुभावों आदि के साथ संदर्भो की अनुगामिनी भी है। ऐसी और भी अनेक उपमाएं उत्तराध्ययन में प्रयुक्त हुई हैं। __आगमकार ने जिन उपमानों का प्रयोग किया है, उत्तरवर्ती साहित्य और जनजीवन में कुछ उपमाओं का तो व्यापक प्रचलन और प्रयोग हुआ है और कुछ उपमाएं उत्तरवर्ती प्रयोगकर्ताओं से लगभग अछूती सी रह गई हैं। लेकिन प्रचलित और अप्रचलित दोनों ही प्रकार की उपमाएं अपने आप में नई दृष्टि, नया सोच, नया संदेश लिए हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। संस्कृत साहित्य में उपमा के संदर्भ में कविवर्य कालिदास ने जो स्थान पाया है, यदि आगमों का भी उस दृष्टि से अध्ययन किया जाता तो सचमुच कोई नई उपलब्धि सामने आ सकती थी। फिर 'उपमा कालिदासस्य' की जगह शायद शोधकर्ता को “उपमा उत्तराध्ययनस्य' कहने के लिए विवश होना पड़ता। * रूपक अलंकार रूपक सादृश्यमूलक अलंकार है। स्वरूपगगत चारूता व कवि परम्परा में प्राप्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपमा के बाद रूपक का ही स्थान है। भामह ने गुणसाम्य के आधार पर उपमेय में उपमान के आरोप को रूपक कहा है उपमानेन यत्तत्वमुपमेयस्य रूप्यते। गुणानां समतां दृष्ट्वा रूपकं नाम तद्विदुः॥६४ यह प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप है। उत्तराध्ययन में रूपक अलंकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। अध्ययन की सुविधा से उत्तराध्ययन में प्राप्त रूपकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है १. छोटे-छोटे रूपकों के माध्यम से जीवन के महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर करना। २. माला-रूपक के रूप में अत्यन्त विशाल चित्र जिसमें आरोप की लम्बी परम्परा चलती है और मौलिक उद्भावनाओं के साथ अध्यात्म के गूढ़ विषयों का सरलता से प्रतिपादन हुआ है। रूपक अलंकार के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार 167 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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