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________________ तो कवि श्रेष्ठों ने उस छन्द को उपेन्द्रवज्रा कहा है। पिंगलसूत्र में इसका लक्षण इस प्रकार है 'उपेन्द्रवज्रा ज्तौ ज्गौग्' जिस छन्द के प्रत्येक चरण में एक जगण, एक तगण फिर एक जगण और दो गुरु हों तो उसे उपेन्द्रवज्रा कहते हैं। यथा सम्मद्दमाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य। असंजए संजयमन्नमाणे ISISSIISISS पावसमणि त्ति वुच्चई || उत्तर. १७/६ उपर्युक्त छंद के तृतीय चरण में उपेन्द्रवज्रा का लक्षण घटित हो रहा है। शेष तीन चरण में अनुष्टुप् का प्रयोग है। वंशस्थ प्रसिद्ध छंद होने से प्रायः सभी छन्दशास्त्रियों ने इसका विवेचन किया है। पिंगल ने इसका लक्षण बताया- 'वंशस्था जतौ जरौ । १५३ यह भी वर्णिक छंद है। इसके चारों चरण समान होते हैं। जगण, तगण, जगण, रगण क्रम से प्रत्येक चरण में बारह अक्षर होते हैं। वंशस्थ को ही वंशस्थविल, वंशस्तनित आदि नामों से अभिहित किया जाता है। पाद में यति का विधान होता है। विनीत के महत्त्व को उजागर करती हुई एक गाथा प्रथम अध्ययन में वंशस्थ छंद में है - स पुज्नसत्थे सुविणीयसंसए मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया। ISISS ।। ऽ। ऽ।ऽ ISIS ऽ।। SIS तवोसमायारिसमाहिसंवुडे ISISSIISISIS महज्जुई ISIS पंचवयाई SIISI उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार Jain Education International 2010_03 पालिया ।। SIS वह पूज्यशास्त्र होता है - उसके शास्त्रीयज्ञान का बहुत सम्मान होता है। उसके सारे संशय मिट जाते हैं। वह गुरु के मन को भाता है। वह उत्तर. १/४७ For Private & Personal Use Only 157 www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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