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कर्म- संपदा से सम्पन्न होकर रहता है। वह तपः सामाचारी और समाधि से संवृत होता है। वह पांच महाव्रतों का पालन कर महान तेजस्वी हो जाता है। इस गाथा में प्रयुक्त छंद के अंतिम चरण में 'ई' को विकल्प से लघु माना है।
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इसके अतिरिक्त आठवां अध्ययन 'काविलीयं' गीत-गेय हैं, इनका लक्षण 'उग्गाहा' छंद से कुछ मिलता है।
हमारे विचारों के अनुरूप हमारी वाणी उठती - गिरती चलती है। वाणी की यही तरंग, यही उतार-चढ़ाव लय को जन्म देता है। जो भाव छंद बद्ध होता है वह अधिक अमरत्व को प्राप्त करता है। यही कारण है कि ढाई हजार वर्ष के बाद भी ऋषिवाणी की यह अनुगूंज भव्यजनों के कानों में गूंजित होकर मनुष्यजन्म की सार्थकता सिद्ध कर रही है।
अलंकार
आगमवाणी अंतःकरण से उठी आवाज है। पवित्र अंतःकरण से स्फूर्त वाणी में हृदय-पक्ष प्रधान होता है। यही वह कारण है जिससे आर्ष-वाणीआगम को श्रेष्ठ कह सकते हैं। आर्ष-वाणी की विशेषता है कि यह सीधी व्यक्ति के हृदय को छूती है, उसके कण-कण में व्याप्त होकर उसे भी शीघ्र पावन सामर्थ्य से युक्त बनाती है। ऋषि, उपदेशक अपनी कथन प्रणाली में ऐसी प्रविधियों का आश्रय लेते हैं जिनसे उनकी वाणी सशक्त एवं प्रभविष्णु बन जाती है। उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग में परिगणित आगम है । कथ्य की अभिव्यक्ति एवं सिद्धान्तों के प्रयोग के लिए उत्तराध्ययन सूत्र के ऋषि ने अनेक अलंकारों का विनियोजन किया है, जिनमें उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति अपने आवरण को सजाने-संवारने में नित्य नवीन रूप धारण करती है। साहित्यकार प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करने वाला भावुक प्राणी है। वह न केवल अपने बाह्य रूप को सुन्दर बनाने के लिए श्रृंगार आदि का प्रयोग करता है किन्तु अपनी विचारात्मक अभिव्यक्ति को भी सुन्दर तथा मनोरम बनाने के लिए अलंकारों की सहायता लेता है। काव्य में शब्दगत एवं अर्थगत चमत्कार उत्पन्न करने में अलंकारों का प्रयोग किया जाता है ।
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उत्तराध्ययन का शैली- वैज्ञानिक अध्ययन
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