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________________ तांबा, लोहा, रांगा और सीसा पिलाया गया। तुझे खण्ड किया हुआ और शूल में खोंस कर पकाया हुआ मांस प्रिय था-यह याद दिलाकर मेरे अंग का मांस काट अग्नि जैसा लाल कर मुझे खिलाया गया। - यहाँ परमाधामी देवकृत वेदना आलम्बन विभाव है। गर्म तांबा, लोहा आदि तथा कलकल शब्द उद्दीपन विभाव हैं। मानसिक घृणा रूप स्थायीभाव गर्म लोहा आदि पीना और मांस खाना आदि अनुभावों से कार्य रूप में परिणत होकर ग्लानि, निर्वेद आदि संचारी भावों से पुष्ट होता हुआ बीभत्सता को भी बीभत्स बना रहा है। उत्तराध्ययन में राजीमती के सामने उपस्थित रथनेमि भोगों की याचना करता हुआ बीभत्स-रस का मार्मिक प्रसंग उपस्थित करता है। राजीमती अर्हत् अरिष्टनेमि को वंदना के लिए रैवतक पर्वत पर जा रही थी। मार्ग में बारिश से भीग जाने से एक गुफा में जाकर वह वस्त्र सुखा रही थी उसी समय गुफा में पहले से ही विद्यमान रथनेमि राजीमती को यथाजात अवस्था में देखता है और कामासक्त होकर भोगों की याचना करता है। तब राजीमती का हृदय घृणा से भर जाता है। घृणा प्रकट करते हुए तथा भोगों की असारता का प्रतिपादन करते हुए राजीमती ने कठोर शब्दों में कहा धिरत्थु ते जसोकामी! जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे।। उत्तर. २२/४२ हे यशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे। जो तू भोगी-जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना ही श्रेय है। यहां रथनेमि बीभत्स-रस का आलम्बन विभाव है। राजीमती के हृदय में स्थित 'जुगुप्सा' रूप स्थायीभाव उसके द्वारा रथनेमि को धिक्कारना, वमन को पीने जैसी स्थिति आदि से उत्पन्न नाक सिकोड़ना आदि अनुभावों से कार्य रूप में परिणत हुआ है तथा ग्लानि, उद्वेग आदि संचारिकों से परिपुष्ट हो बीभत्स-रस निष्पन्न हुआ है। अद्भुत-रस आश्चर्यजनक पदार्थो को देखने से अद्भुत-रस उत्पन्न होता है। उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार 145 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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