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में गाथापति आनंद की तपश्चर्या, 'आयारो' में उपधानश्रुत में का तप वर्णन तपवीर रस के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
'क्रोध, मान आदि को पराजित कर मिथिला नरेश नमि ने संसार के समक्ष तपवीर का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। स्वयं देवेन्द्र स्तुति करते हुए कहता है
अहो ! ते अज्जवं साहु अहो ! ते साहु मद्दवं ।
अहो ! ते उत्तमा खंती अहो ! ते मुत्ति उत्तमा । उत्तर. ९/५७
अहो ! उत्तम है तुम्हारा आर्जव । अहो ! उत्तम है तुम्हारा मार्दव । अहो! उत्तम है तुम्हारी क्षमा । अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता ।
आगम गाथा है
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।।'
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उपशम से क्रोध को, मार्दव/ कोमलता से मान को,
से माया को तथा संतोष से लोभ को जीतना चाहिए।
प्रभु महावीर
पुनर्भव के मूल का सिंचन करने वाले इन चार कषायों को सहिष्णुता, मार्दवता, आर्जवता, और निर्लोभता से जीतकर नमि राजर्षि ने इस आगमवाक्य को चरितार्थ किया है।
यहां आंतरिक विशुद्धि रूप उत्साह स्थायी भाव है। कर्ममुक्ति की अभीप्सा आलम्बन विभाव है। तितिक्षा, ऋजुता, अनासक्तता आदि उद्दीपन विभाव हैं। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रूप अनुभाव तथा धैर्य, हर्ष आदि संचारी भावों से युक्त तप - वीर रस का प्रभाव न केवल तपी पर अपितु पूरे वातावरण पर परिलक्षित हो रहा है।
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उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
आर्जव / सरलता
'दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ गृहीत, प्रमादरहित तप के अनुष्ठान से होने वाले आनन्द की अनुभूति तप- वीर रस को निष्पादित करती है । हरिकेशी मुनि की तपस्या प्रखर संकल्प द्वारा गृहीत तथा अपवर्ग की ओर ले जाने वाली है। तप से वे कृश हो गये थे -
'तवेण परिसोसियं । ' उत्तर. १२/४
शारीरिक सुखों का परित्याग कर तप के क्षेत्र में उन्होंने आदर्श
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