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________________ चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ । चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे || उत्तर. १८/४१ विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा उत्तम भोगों को छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया। इस प्रसंग में संसार - त्याग के प्रति प्रवर्धमान उत्साह स्थायी भाव है। संसार - समुद्र को तैरकर श्रेष्ठत्व की प्राप्ति की इच्छा आलम्बन विभाव है। सात्विक अध्यवसाय उद्दीपन विभाव है। संसार - परित्याग, लक्ष्य में स्थिर चैतसिक व्यापार आदि अनुभाव हैं। रोमांच, हर्ष, धृति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से त्यागवीर रस की अभिव्यक्ति हुई है। 'मृगापुत्रीय अध्ययन में संयत श्रमण को देख जातिस्मरण होने से महर्द्धिक मृगापुत्र को पूर्व जन्म तथा पूर्वकृत श्रामण्य की स्मृति हो आई । स्मृति के कारण वह भोगों में अनासक्त और संयम में अनुरक्त बना। फिर ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञातिजनों को कपड़े पर लगी हुई धूलि की तरह झटकाकर वह प्रव्रजित हो गया इ ं वित्तं च मित्ते य पुत्तदारं च नायओ । रेणुयं व पडे लग्गं निधुणित्ताण निम्गओ ॥ उत्तर. १९/८७ यहां मृगापुत्र के मन में संयम प्राप्ति का उत्साह संयत श्रमण को देखने के बाद निरन्तर संवर्धित हो रहा है। यही उत्साह स्थायी भाव है। मोक्ष प्राप्ति की इच्छा आलम्बन विभाव है। मुनि को देख प्रतिबोध, जातिस्मरण आदि उद्दीपन विभाव हैं। ऋद्धि का त्याग अनुभाव हैं। संयम में पराक्रम, धृति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। इन सबके योग से त्याग सम्बन्धी वीर रस की निष्पत्ति हुई है। तपवीर 140 भारतीय संस्कृति का मूल तप है। तप से मनुष्य अचिन्त्य शक्तिसंपन्न बन जाता है। योग वासिष्ठकार ने कहा- विश्व में दुष्प्राप्य वस्तु तप के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। आगमों में तप - वीर के अनेक उदाहरण मिलते हैं। 'उवासगदसाओ' Jain Education International 2010_03 उत्तराध्ययन का शैली वैज्ञानिक अध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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