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प्रस्तुत किया। भोजन-प्राप्ति के लिए यज्ञ मंडप में गये हुए स्वयं हरिकेशी
कहते है
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'सेसावसेसं लभऊ तवस्सी' उत्तर. १२/१०
इस तपस्वी को कुछ बचा भोजन मिल जाए। इससे भी उनके तपस्वी जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
पुरोहित पत्नी भद्रा भी उग्र तपस्वी के रूप में इनको पहचानती है -
'एसो ह सो उम्गतवो महप्पा |' उत्तर. १२/२२
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एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए भक्त - पान लेते ही देवों द्वारा पुष्प और दिव्य धन वर्षा, आकाश में दुन्दुभि बजाना तथा ‘अहोदानम्’ के घोष से ग्रन्थकार ने हरिकेशी मुनि की प्रत्यक्ष तप- महिमा का वर्णन किया है। कितना महान् तप था उनका
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प्रस्तुत प्रसंग में तप में पराक्रम रूप उत्साह स्थायीभाव है। आठकर्म-ग्रन्थओं से मुक्ति, निर्जरा की अभीप्सा आदि आलंबन विभाव हैं। तप का अचिन्त्य प्रभाव उद्दीपन विभाव है। शरीर कृश होना अनुभाव है। निर्वेद, श्रम, धृति, हर्ष आदि संचारी भावों से तप- वीर रस निष्पन्न हुआ है।
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इस प्रसंग में मुनि की शरीर के प्रति निर्ममत्व भावना तथा आत्मा के प्रति निज्जरट्टयाए की भावना परिलक्षित हो रही है।
'रहनेमिज्जं अध्ययन में मरणासन्न दशा को प्राप्त निरपराध प्राणियों को देखकर अरिष्टनेमि ने कुंडल, करघनी तथा सारे आभूषण उतार दिए और सुगन्ध से सुवासित घुंघराले बालों का पंचमुष्टि से शीघ्र लोच किया- यहां अरिष्टनेमि का तप-वीर-रस मुखर हुआ है।
यहां स्थायी भाव उत्साह नित्य वर्धमान है। जीव-वध प्रतिपादक वचन आलम्बन विभाव है। कुंडल, आभूषण आदि उतारना उद्दीपन विभाव हैं। संयम, तप आदि अनुभावों तथा धृति, हर्ष आदि संचारी भावों से पुष्ट होकर तप-वीर रस की स्थिति निर्मित हुई है।
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पावपत्यीय श्रमण केशी द्वारा महावीर के शिष्य गौतम से प्रश्न
किया गया - शत्रु कौन कहलाता है ? तुमने उसे कैसे पराजित किया ? गौतम
उत्तराध्ययन का शैली - वैज्ञानिक अध्ययन
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