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आश्चर्य कैसा वर्ण और कैसा रूप है। आश्चर्य! आर्य की कैसी सौम्यता है। आश्चर्य! कैसी क्षमा और निर्लोभता है। आश्चर्य! भोगों में कैसी अनासक्ति है।
उद्यान में रमण करने के लिए गया हुआ नृप श्रेणिक अनाथी मुनि के रूप-लावण्य को देख विस्मित हो कहते हैं 'अहो! वण्णो अहो! रूवं.....॥
'अहो ही च विस्मये'७० 'ओहाङ् गतौ' धातु से डो प्रत्यय करने पर 'अहो' रूप निष्पन्न होता है। यह निपात 'आश्चर्य' अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहां 'अहो' निपात मुनि की शरीर-संपदा तथा चरित्र की उत्कृष्टता को प्रतिध्वनित करता है। राजा पूर्ण यौवन में रूप-लावण्य युक्त कुमार को मुनि अवस्था में देख विस्मित हो जाता है और यह विस्मय शान्त रस की अनुभूति का हेतु बनता है।
'अहोसुभाण कम्माणं निजाणं पावगं झमी' उत्तर. २१/९ अहो! यह अशुभ कर्मों का दुःखद निर्याण-अवसान है। यहां 'अहो' अव्यय से कर्मों की विचित्रता का दर्शन हो रहा है। धिरत्थु ते जसोकामी! जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवो उत्तर. २२/४२
हे यशः कामिन! धिक्कार है तुझे। जो तू भोगी-जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है।
राजीमती के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो रथनेमि संयमरत्न से भ्रष्ट हो भोगी बनना चाहता है, उसी समय शौर्य-ओज युक्त वाणी में वह धिक्कारती है 'धिरत्थु ते जसोकामी!' यहां धिक् निपात एक ओर राजीमती की संयम के प्रति अटूट आस्था को व्यक्त कर रहा है तो दूसरी ओर रथनेमि की भर्त्सना, निन्दा, मानवीय स्वभाव की दुर्बलता का सातिशय द्योतन कर रहा है। यह प्रसंग निपात-वक्रता का श्रेष्ठ उदाहरण बना है।
‘धिक्' निपात ‘धक्क नाशने' धातु से बहुलता से डिक् प्रत्यय करने पर बनता है। जिसका अर्थ है भर्त्सना करना, निन्दा करना-'धिगभर्त्सने व निन्दायाम्।७१
रथनेमि का शौर्य जागृत करने में राजीमती का कथन धिगस्तु...
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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