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कृदन्त
कृत्य प्रत्ययों के योग से होने वाले अव्यय कृदन्त है। जैसे-णच्चा, वोसिज्ज, अभिभूय आदि।
'चउरंगं दुल्लहं नच्चा संजमं पडिवज्जिया।' उत्तर. ३/२०
चार अंगों (मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा, वीर्य) को दुर्लभ मानकर संयम स्वीकार करते हैं।
'ज्ञा अवबोधने'६९ धातु से त्वा प्रत्यय लगकर संस्कृत रूप णत्वा का प्राकृत में नच्चा रूप बनता है। जिसका अर्थ है सम्यक् रूप से जानकर। सम्यक् रूप से जाने बिना किसी भी सिद्धांत का व्यावहारिक आचरण नहीं होता है। यहां नच्चा अव्यय चार अंगों की दुर्लभता का ज्ञान कराकर शांतरस की उद्भावना में सहायक बना है।
जा
जो प्रकृति, प्रत्यय आदि विभागों से रहित है, वह रूढ़ कहलाते हैं। च, वा, ण आदि।
माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुव।। उत्तर. ७/१६
मनुष्यत्व मूल धन है। देवगति लाभ रूप है। मूल के नाश से जीव निश्चित ही नरक और तिर्यच गति में जाते हैं।
मनुष्य का मूल धन मनुष्यत्व है। मनुष्य जन्म की दुर्लभता सर्वसम्मत है। शंकराचार्य ने विवेक चूडामणि में लिखा है -
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहकेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रयः।।
चौरासी लाख जीवयोनि में भ्रमण करते-करते किसी प्रकार दुर्लभ मनुष्यत्व को प्राप्त करके भी प्रमादवश जो उसका लाभ नहीं उठाते हैं वे अपने मूलधन के नाश से निश्चित रूप से निम्न गतियों में जाते हैं। यहां 'धुवं' निपात से मूलविनाशक जीव का निश्चित निम्नगमन अभिव्यंजित है।
अहो! वण्णो अहो! रूवं, अहो! अज्नस्स सोमया। अहो! खंती अहो! मुत्ती, अहो! भोगे असंगया।। उत्तर. २०/६
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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