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कारक-वक्रता
इसमें कारक की विचित्रता ही रमणीयता का आधार होती है। इस वक्रता में कवि किसी कथ्य की अभिव्यक्ति में कारकों का विपर्यय कर देता है। कारक-वक्रता को निर्दिष्ट करते हुए आचार्य कुन्तक लिखते हैं
यत्र कारक सामान्यं प्राधान्येन निबध्यते। तत्त्वाध्यारोपणान्मुख्यगुणभावाभिधानतः।। परिपोषयितुं कांचिद् भंगीभणितिरम्यताम्। कारकाणां विपर्यासः सोक्ता कारकवक्रता॥७
सामान्य कारक का प्रधान रूप से या प्रधान कारक का सामान्य रूप से कथन कर किसी अपूर्व भंगिमा का प्रतिपादन किया जाय तो कारकवक्रता होती है। यहां कर्त्ता को कर्म या करण, कर्म या करण को कर्ता, अचेतनत्व पर चेतनत्व या गौण कारकों पर कर्तृत्व का आरोप किया जाता
उत्तराध्ययन में कारक-वक्रता के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य है - 'विणए ठवेज अप्पाणं' उत्तर. १/६ मनुष्य अपने आपको विनय में स्थापित करे।
'विणए' सप्तमी विभक्ति आधार स्वरूप अधिकरण का रूप है। आधार वही होगा जो मूर्त हो। यहां अमूर्त का मूर्त्तत्व-आधारत्व के रूप में प्रतिपादन किया गया है।
'पावदिहि त्ति मन्नई' उत्तर. १/३८
पापदृष्टि ऐसा मानता है। पाप से युक्त दृष्टि या पापपूर्ण दृष्टि पापदृष्टि है। यहां पापदृष्टि वाला शिष्य (अविनीत शिष्य) गुरु के कल्याणकारी वचन को भी अन्यथा मानता है। यानि पापदृष्टि पर कर्तृत्व का आरोप हुआ है। कारक-वैचित्र्य का यह उत्कृष्ट निदर्शन है। 'खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे।'
उत्तर. ४/१० कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए उठो, कामभोगों को छोड़ो।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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