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यहां 'पहाय कामे' कामनाओं को छोड़ो-छोड़ना मूर्त का धर्म है, कामनाएं अमूर्त है। यहां अमूर्त कामनाओं पर मूर्त-छोड़ने को आरोपित किया है। मूर्त्त कर्म के स्थल में अमूर्त कर्म का प्रयोग कारक-वैचित्र्य-वक्रता है।
इसी प्रकार
अदीणमणसो (२/३) प्रथमा के अर्थ में षष्ठी विभक्ति, दुरुत्तरं (५/१) सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति (टीकाकार ने इसे क्रियाविशेषण भी माना है), माया (९/५४) तृतीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति, मित्तेसु (११/८) चतुर्थी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति,सव्वकम्मविनिम्मुक्कं (२५/ ३२) प्रथमा के अर्थ में द्वितीया-आदि उदाहरण कारक-वक्रता से मंडित है। वचन (संख्या) वक्रता
कुर्वन्ति काव्यवैचित्र्यविवक्षापरतंत्रिताः। यत्र संख्याविपर्यासं तां संख्यावक्रतां विदुः॥१८
जब कवि अत्यधिक सौन्दर्य-सृष्टि के लिए काव्य में वचन-विपर्यय इच्छापूर्वक कर दे तो वहां संख्या-वक्रता होती है। इसका प्रयोजन ताटस्थ्य आदि भाव की प्रतीति कराना है। यह असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि का हेतु है।
यथा
तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया। उवेन्ति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई। उत्तर. ३/१६
वे देव उन कल्पों में अपनी शील-आराधना के अनुरूप स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं। फिर मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहां दस अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं।
यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन 'से' का प्रयोग वचन की रमणीयता का अभिव्यंजक है।
असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं। .. एवं वियाणहि जणे पमत्ते कण्णु विहिंसा अजया गहिति।।
उत्तर. ४/१
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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