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पद - परार्ध - वक्रता
इसका सम्बन्ध शब्द के उत्तरार्ध अंश या प्रत्यय आदि से है। इसे प्रत्यय- वक्रता भी कहा जाता है। इसमें प्रत्यय की वक्रता या रमणीयता का वर्णन होता है। इसके छः प्रकार हैं
कालवैचित्र्य-वक्रता
जब काल या समय - विशेष पर चमत्कार आश्रित हो तो उसे कालवैचित्र्य - वक्रता कहते है। इसमें औचित्य के अनुकूल समय रमणीयता या चमत्कार को प्राप्त करता है -
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औचित्यान्तरतम्येन समयो रमणीयताम् ।
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याति यत्र भवत्येषा कालवैचित्र्यवक्रता ।।
न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा | एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म ||
उत्तर. १३/२३
ज्ञाति, मित्र- वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है।
इस प्रसंग में 'विभयंति' तथा 'अणुजाइ' वर्तमानकालिक क्रिया रमणीयता का आधार है। इसमें आत्मकर्तृत्व मुखर हुआ है। कर्म का सिद्धांत नितांत व्यक्ति पर आश्रित है। व्यक्ति के सुख-दुःख में कोई दूसरा हिस्सा नहीं बंटाता - स्वयं उसे भोगना पड़ता है। यह आत्मकर्तृत्व- भोक्तृत्व यहां काल पर आश्रित है।
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जइ तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि नारिओ ।
वायाविद्धो व्व हो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥ उत्तर. २२/४४
यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत हड (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा।
'भविस्ससि' क्रिया में यहां कालगत चमत्कार है। राग-भाव के आगमन से ही स्थितप्रज्ञता का लोप हो जाता है। यदि उसका आगमन हो जाएगा तो आत्मा की स्थिति क्या होगी ? यह आत्मविषयक भय-व्यंजना भविस्ससि क्रिया से प्रकट हो रही है।
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उत्तराध्ययन का शैली - वैज्ञानिक अध्ययन
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