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'राजृ दीप्तौ २४ तथा 'ऋषि गतौ २५ धातु से राजर्षि शब्द बना है जो ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि के द्वारा प्रजाजनों को दीप्त करता है, सभी पदार्थों को जो जान लेता है वह राजर्षि है। राजर्षि शब्द से आत्मिक विभूति की गूंज प्रतिध्वनित है।
कोष में५ राजर्षि का अर्थ राजकीय ऋषि, सन्त समान राजा, क्षत्रिय जाति का पुरुष जिसने अपने पवित्र जीवन तथा साधनामय भक्ति से ऋषि का पद प्राप्त किया हो, किया गया है।
नमि राजा की अवस्था में भी ऋषि की तरह जीवन-यापन करते थे। उन्होंने अपनी प्रखर साधना से ऋषि पद प्राप्त किया।
'राजाचासौ राज्यावस्थामाश्रित्य' ऋषिश्च तत्कालपेक्षया राजर्षिः यदि वा राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषिः-क्रोधादिषड्वर्गजयात् जो व्यक्ति क्रोधादि षड्वर्ग को छोड़ता है वह राजर्षि कहलाता है।
इन्द्र और नमि के प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है कि नमि ने क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी तभी देवेन्द्र को नमि की स्तुति करते हुए कहना पड़ा-'अहो! ते निन्जिओ कोहो........।' इसीलिए यहां नृप, भूपाल आदि शब्दों की अपेक्षा राजर्षि शब्द का प्रयोग विद्वद्जनों द्वारा समादरणीय है। उपचार-वक्रता
काव्यभाषा का प्रमुख लक्षण लाक्षणिकता है। वह उपचार-वक्रता से आती है। उपचार शब्द का अर्थ है- विभिन्न पदार्थों में सादृश्य के कारण उत्पन्न होने वाली समानता या एकता, जैसे 'मुख रूपी चन्द्र ।' जहां भेद होते हुए भी अभेद का अनुभव हो, ऐसी वक्रता को उपचार-वक्रता कहते हैं। अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप उपचार-वक्रता है। अमूर्त्त पर मूर्त का आरोप, मूर्त्त पर अमूर्त का आरोप, मानव के साथ मानवेतर धर्म का आरोप, रूपक आदि अलंकार भी इसी के अंतर्गत आते हैं। आधुनिक शैलीविज्ञान में इन असामान्य प्रयोगों को विचलन कहते हैं। कुन्तक ने इसे उपचार-वक्रता कहा है -
यत्र दूरांतरेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते। लेशेनपि भवत् कांच्चिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम्।। यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरलंकृतिः। उपचारप्रधानासौ वक्रता काचिदुच्यते॥
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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