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आधुनिक आलोचकों ने महावीर की अंतिम देशना के आधारभूत ग्रन्थ उत्तराध्ययन को 'श्रमण काव्य' से अभिहित किया है।३० इसमें जैनतत्त्वविद्या, दर्शन, साधना- पद्धति आदि के प्रतिपादन में ग्रन्थकर्ता ने यत्रतत्र उपचार-वक्रता का प्रभूत प्रयोग किया है तथा उसके द्वारा भाव अनुभूतिगम्य और अभिव्यक्ति में रमणीयता का आधान हुआ है। यथा -
अमूर्त के साथ मूर्त धर्म का प्रयोग विणए ठवेज्ज अप्पाणं इच्छन्तो हियमप्पणो।। उत्तर. १/६
अपनी आत्मा का हित चाहने वाला, अपने आपको विनय में स्थापित करे। स्थापित करने की क्रिया मूर्त पदार्थ में ही संभव हो सकती है। 'ष्ठां गतिनिवृतौ' धातु से ठवेज्ज रूप निष्पन्न है। जिसका अर्थ है-ठहरना, निश्चेष्ट होना, प्रतिबद्ध होना। अमूर्त विनय में आत्मा की संस्थापना कैसे हो सकती है? मूर्त्त-धर्म का अमूर्त्त पर आरोप कर कवि-प्रतिभा विनय की उत्कृष्टता प्रकट कर रही है। यहां विनय को सर्वात्मना धारण करना, एकमेक हो जाना अभिव्यंजित है।
अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो| उत्तर. १/१५ आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मा ही दुर्दम है।
दमन-क्रिया संसार में शत्रु-दमन, दुष्ट हाथी का दमन आदि मूर्त्त पदार्थों के लिए प्रसिद्ध है किन्तु यहां अमूर्त आत्मा के लिए दमन क्रिया का प्रयोग किया गया है जो अध्यात्म के क्षेत्र में आत्म-साधना के महत्त्व को उजागर करता है। दमन शब्द 'दमु-उपशमे' धातु से व्युत्पन्न है। यहां दमन छेदन-भेदन के अर्थ का धारक न होकर शान्त करना, स्वाधीन करना अर्थ का अभिव्यंजक है। यहां राग-द्वेषादि जो आत्मेतर पदार्थ हैं, उनसे आत्मा को अलग कर स्व-स्वरूप में परमविश्रान्ति की घटना काम्य है।
कणकुण्डगं चइत्ताणं विट्ठ भुंजइ सूयरे। एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए।। उत्तर. १/५
जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शील को छोड़कर दुःशील में रमण करता है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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