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जितने अविद्यावान पुरुष हैं, वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। वे दिङ्मूढ की भांति मूढ़ बने हुए इस अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। • हित-अहित के विवेक की विकलता को बताने के लिए यहां अज्ञ, वैधेय, बालिश आदि की अपेक्षा 'मूढ़' शब्द अधिक औचित्यपूर्ण है। 'मुह वैचित्ये धातु से क्त प्रत्यय करने पर मूढ़ शब्द निर्मित होता है। आप्टे ने इसके मोहित, उद्विग्न, व्याकुल, सूझबूझ से हीन, मन्दबुद्धि, जड़ आदि अर्थ किए हैं।२० बहवृत्ति में कहा गया-'मूढा हिताहिताविवेचनं प्रत्ययसमर्थाः' हित-अहित के विवेक से जो विकल है वह मूढ है।२४
प्रस्तुत प्रसंग में मूढ शब्द व्यक्ति की विवेक शून्यता को प्रकट कर रहा है।
जगत आदि शब्दों के स्थान पर 'संसारंमि' शब्द का प्रयोग भी प्रसंगानुकूल है। 'संसरतीति संसारः' जो संसरण करे वह संसार है। 'संसरणम् इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः'२२ जिसमें जीव या प्राणी भ्रमण करता है वह संसार है। यहां लुप्पंति क्रिया द्वारा परिभ्रमण गम्य है। उसके अनुकूल संसार शब्द का प्रयोग विच्छिति-वैचित्र्य का सूचक है।
कोलाहलगभूयं आसी मिहिलाए पव्वयंतंमि। । तइया राइरिसिंमि नमिमि अभिणिक्खमंतंमि।। उत्तर. ९/५
जब राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर रहे थे, प्रवजित हो रहे थे उस समय मिथिला में सर्वत्र कोलाहल जैसा होने लगा।
यहां कोलाहल शब्द का मार्मिक और रोमांचकारी प्रयोग हुआ है। कोलाहल शब्द 'कुल संस्त्याने' तथा 'हल विलेखने २३ इन दो धातुओं के मेल से बना है। 'कोलनम् कोलः एकीभावः तमाहलति' अर्थात् जो एकीभव, मन की शांति को खण्डित कर दे वह कोलाहल है। मन अशांत होता है, तब कोलाहल उत्पन्न होता है और वह दूसरों को भी अशांत कर देता है। राजर्षि को प्रव्रजित होते देख पूरी मिथिला नगरी, रनिवास, सब परिजन-'अब हमारी रक्षा कौन करेगा?' इस चिंता से आक्रन्दन करने लगे, उससे सर्वत्र कोलाहल हो गया। कोलाहल शब्द से यहां मन की अशांति अभिव्यंजित है, जो कोलाहल के पर्यायवाची कलकल आदि शब्दों से संभव नहीं।
राजर्षि शब्द भी यहां पर्याय-वक्रता का उत्कृष्ट उदाहरण बन रहा है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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