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________________ उपयोग कम ही करते हैं। ३.४. सुख और द्युति इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषयों का अनुभव करना सुख है । शरीर, वस्त्र और आभरण आदि की दीप्ति द्युति है । यह सुख और द्युति ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक होने से उनमें उत्तरोत्तर क्षेत्र स्वभाव जन्य शुभ पुदगल-परिणाम की प्रकृष्टता होती है । साता वेदनीय कर्म के उदय से बाह्य विषयों में इष्ट अनुभव रूप सुख उपर-उपर देवो में अधिक होता है। ६. इन्द्रियविषय : देवों में दूर से इष्ट विषयों को ग्रहण करने का इन्द्रियों का सामर्थ्य भी उत्तरोत्तर गुण की वृद्धि और संक्लेश की न्यूनता के कारण ऊपर-ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर अधिक होता है । अपने-अपने इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करना, जैसे की कान से दूरदूर का सुनना, आँख से दूरदूर देखना आदि । अंतरद्वार : कोई जीव एक भव से मरकर फिर जितने काल के बाद दूसरे भव में आता हैं उसे अन्तर कहते हैं । देवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कोई जीव देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य के रूप में पैदा हुआ, सब पर्यायप्तियों से पूर्ण हुआ, विशिष्ट संज्ञान वाला हुआ, तथाविध श्रमण या श्रमणोपासक के पास धार्मिक आर्यवचनों को सुनकर धर्मध्यान ध्याता हुआ, गर्भ में ही मरकर देवों में उत्पन्न हुआ-इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है । उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाय का है, जो वनस्पतिकाय में अनन्तकाल तक जन्म-मरण रहने के बाद देव बनने पर घटित होता है । इसप्रकार का अन्तराल देरों का है। उद्वर्तनाद्वार :- देवभव से च्यवकर कहाँ उत्पन्न होते है इसको उदवर्तना कहते है ।९ सौधर्म देवलोक के देव बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय अप्काय और वनस्पतिकाय में, संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । ईशानदेव भी इन्ही में उत्पन्न होते हैं । सनत्कुमार से लेकर सहस्त्रार पर्यन्त के देव संख्यात वर्ष की आयुवाले पर्याप्त Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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