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निचले पुर्ववत्
अनुत्तरोपपातिक देव
सम्पूर्ण लोकनाडी
लेश्या :
.लेश्या अर्थात् मन के परिणाम(भाव, अध्यवसाय, विचार) । देवों में छ: लेश्याएं होती हैं ।
लेश्या-विशुद्धि पहले दो, तीन और शेष स्वर्गों में क्रमशः पीत-पद्म और शुक्ल लेश्या वाले देव होते हैं । यह विधान शरीरवर्ण रूप द्रव्यलेश्या के विषय में है, क्योंकि अध्यवसाय रूप छहों भावलेश्या तो सब देवों में होती हैं ।
व्यंतर से सौधर्म-ईशान देव में तेजोलेश्या, सनत्कुमार और माहेन्द्र में पद्मलेश्या और ब्रह्मलोक में भी पद्मलेश्या होती हैं । इससे ऊपर के वैमानिक देवों में केवल शुक्ललेश्या होती है । अनुत्तरौपपातिक देवों में परम शुक्ल लेश्या होती
उपरोक्त विवक्षा से जिन देवों की लेश्या समान है, उनमें भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों की लेश्या संक्लेश-परिणाम की न्यूनता के कारण उत्तरोत्तर विशुद्ध विशुद्धतर होती हैं ।४६ गुणस्थान :
देवों में सामान्यतः चार गुणस्थान होते है :- १) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, २) सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, ३) सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान और ४) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान । ये गुणस्थान पर्याप्त और अपर्याप्त देवों में होते हैं । २. प्रभाव :
निग्रह, अनुग्रह, विक्रिया और पराभियोग को प्रभाव कहते हैं । निग्रह :शाप अथवा दंड देने की शक्ति । अनुग्रह :- परोपकार आदि करने की शक्ति । विक्रिया :- शरीर को अनेक प्रकार का बनाने की आणिमा-महिमा आदि लब्धरूपं शक्ति । पराभियोग :- अन्य पर वर्चस्व, जिसके बल से दूसरों के पास जबरदस्ती से कोई काम करा सकते है। आक्रमण करके दूसरों से काम करवाने का बल यह सब प्रभाव के अन्तर्गत है । यह प्रभाव ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक है । फिर भी उनमें उत्तरोत्तर अभिमान व संक्लेश-परिणाम कम होने से वे अपने प्रभाव का
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