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देवों का ज्ञान :
जैन दर्शन में पांच प्रकार के ज्ञान मान्य किये गये हैं
१) मतिज्ञान, २) श्रुतज्ञान, ३) अवधिज्ञान, ४) मनःपर्याव ज्ञान और ५) केवलज्ञान ।
सामान्यतः प्रत्येक जीव को प्रथम दो ज्ञान होते हैं । देवों को तीसरा अवधिज्ञान जन्म से ही होता हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है । सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान को ज्ञान कहते है। मिथ्यात्वी का ज्ञान विभंगज्ञान है ।४२
अवधिज्ञान दो प्रकार का है१. भव प्रत्यय - जन्मजात २. गुण प्रत्यय - साधना से प्राप्त
इस प्रकार देवों में जन्म से ही अवधिज्ञान होता है । इस अवधिज्ञान से देव कितना क्षेत्र देख पाते है उसको तालिका के माध्यम से बताया जा रहा है-४३ ७. अवधिविषय :
अवधिज्ञान देवों को जन्म से होता है । पर उसका सामर्थ्य भी ऊपरऊपर के देवों में अधिक होता है । पहले-दूसरे स्वर्ग के देव अधोभूमि में रत्नप्रभा तक तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और उर्ध्वलोक में अपने-अपने भवन तक के क्षेत्र को अवधिज्ञान से जानते हैं ।
तीसरे-चौथे स्वर्ग के देव अधोभूमि में शर्कराप्रभा तक तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और उर्ध्वलोक में अपने-अपने भवन तक अवधिज्ञान से देख सकते हैं। इसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते अनुत्तर-विमानवासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को अवधिज्ञान से देख सकते हैं। जिन देवों का अवधिज्ञानक्षेत्र समान होता है उनमें भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों में विशुद्ध विशुद्धतर ज्ञान का सामर्थ्य होता है ।
अवधिज्ञानी देवों के नाम
उत्कृष्ट क्षेत्रसीमा
जानने-देखने की जघन्य क्षेत्रसीमा
१. भवनपति
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