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संपुट के आकार की शय्या होती है, उसमें उत्पन्न होकर अंतर्मुहूंत में परिपूर्ण युवान होकर, जैसे कोई शय्या में सोया हुआ जागृत होकर आनंद सहित बैठा हो जाता है-इसप्रकार देवों का जन्म(उपपात) होता है ।।
देवों के चारों प्रकार स्वयं उत्पन्न होते है । अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । देवों के चार भेद हैं :१. भवनपति, २. व्यन्तर, ३. ज्योतिष्क, ४. वैमानिक
इन सबके निवासस्थान और उत्पत्तिस्थान भिन्न-भिन्न हैं, वे कहाँ है उनका उल्लेख तत्त्वार्थधिगम सूत्र में है । १. भवनपति :
रत्नप्रभा पृथ्वीपिंड के १,८०,००० योजन में से नीचे उपर के एक एक हजार योजन को छोडकर मध्यवर्ती का १,७८,००० योजन में १३ प्रतर के बिच १२ आंतरा है। इन बारह आंतरा में पहले-अंतिम आंतरा को छोड़कर मध्यवर्ती १० आंतरा (खाली जगह) में भवनपति देवों की उत्पत्ति तथा निवास स्थान है। २. व्यन्तर :
रत्नप्रभा पृथ्वी के १,८०,००० योजन में से जो उपर के १००० योजन छोडे हुए है । वे १००० योजन में भी उपर नीचे के १००-१०० योजन त्याग करके मध्यवर्ती ८०० योजन में व्यंतर देवों के उत्पत्ति स्थान और निवास हैं । ३. ज्योतिष्क :
समभूतत्व पृथ्वी से ऊँचे (उर्ध्वदिशा में)७९० योजन जाने के बाद ११० योजन ऊचाई तक के विस्तार में ज्योतिष्क देव जन्म धारण करते हैं, तथा उनके वहाँ निवास स्थान भी हैं । ४. वैमानिक :
ज्योतिष्क के निवास स्थान से कुछ साधिक अर्ध-रज्जु उपर जानेके बाद सौधर्मकल्प से सर्वार्थसिद्धि विमान तक वैमानिक देव जन्म धारण करते है (उनकी उत्पत्ति होती है)।
प्रत्येक वैमानिक देव का उपपात अपने-अपने विमानों में ही होता है । उनका निवास स्थान भी वे-वे विमान ही कहलाते हैं ।
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