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३) उपपात
तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने इन तीन प्रकारों को स्पष्ट किया है-४
१) सम्मूर्छन :
माता पिता के सम्बन्ध के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों का पहले पहल शरीररूप में परिणत होना समूछन जन्म है । २) गर्भ :
उत्पत्तिस्थान में माता के गर्भ में स्थित शुक्र और शोणित के पुद्गलों को पहले शरीर के लिए ग्रहण करके उनके मिलन से जो जन्म होता है वह गर्भजन्म है ।
३) उपपात :
उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रिय पुदगलों का पहले पहल शरीररूप में परिणत होना उपपात जन्म है ।
उपपात के विषय में तत्त्वार्थसूत्र पर अनेकों वृत्तियाँ व टीकाएँ लिखी गई हैं कि जितनी शायद ही अन्य कोई ग्रन्थ की लिखी गई हो । यहाँ सिद्धसेन गणि की वृत्ति तथा टीकाओं में सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद, राजवार्तिक- अकलंकदेव का उल्लेख किया गया है ।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि - "नारक- देवानामुपपातः " अर्थात् नारक और देवों का उपपात - जन्म होता है ।
देवों और नारकों के जन्म के लिए विशेष नियत स्थान होता है, जिसे उपपात क्षेत्र कहते हैं । देवशय्या के ऊपर दिव्यरूप से आच्छन्न भाग देवों का उपपात क्षेत्र है, इस उपपात क्षेत्र में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को वे शरीर के लिए ग्रहण करते हैं ।
इसका विशेष उल्लेख करते हुए तत्त्वार्थवृत्ति में वर्णन है कि जहाँ पहुँचते ही सम्पूर्ण अंगों की रचना हो जाय वह उपपाद है, देव उपपाद शय्या पर उत्पन्न होते हैं ।
इस प्रकार उपपाद से तात्पर्य है कि- माता-पिता के रज और वीर्य बिना देव का निश्चित स्थान विशेष में उत्पन्न होना । इन उपपाद जन्मवालों का शरीर वैकियिक रजकणों का बना रहता है। देवों के प्रसूतिस्थान में शुद्ध सुंगधी कोमल
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