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अर्थात् क्रीडा करना, जीतने की इच्छा करना, व्यवहार करना, चमकना, स्तुति करना, आनंद करना, उन्मत्त होना, इच्छा करना, गति करना । इन अर्थो में 'दिवु' धातु प्राप्त होती है ।।
दशवैकालिक सूत्र, स्थानांग सूत्र, नंदी सूत्र में 'दिवु' धातु को विकल्प से गुण होकर 'देव' शब्द निम्न प्रकार से निष्पन्न हुआ है_ 'दिवु' धातु से 'गुणाऽऽदयः क्लीबे वा' ।
अर्थात् अनुपम क्रीडा आदि का जो अनुभव करते है वे देव हैं ।
हरिभद्रसूरि रचित अष्टक-प्रकरण में उल्लेख है कि जो स्वरूप में चमकता है वह देव है । इसके अतिरिक्त स्थानांग सूत्र में देव को 'धर्मपात्र' भी कहा है ।
इस प्रकार जो सदा क्रीडा करते रहते हैं, जिनके शरीर आभूषण आदि से देदीप्यमान होते हैं, जो सदा हर्ष में मग्न रहते हैं, इन्द्रियविषयों में मस्त रहते हैं तथा जिनके चित्त में लगातार अनेक कामनाएँ उत्पन्न होती रहती हैं, एवं जो विविध स्थानों में क्रीडा के लिए गमन करते हैं इनको देव कहते हैं ।
देवगति नामकर्म के उदय से जो जीव देवपर्याय को धारण करते है, उनको देव कहते हैं । ये इच्छानुसार घुमनेवाले, स्वभाव से ही क्रीडा-खेलने मेंमोजमजा में आसक्त, भूख-प्यास बाधा रहित, अस्थि-मास-लोही आदि से रहित शरीरवाले होने से दीप्तिशाली, सुंदर अंगोपांगवाले होते हैं । विद्या-मंत्र के अंजन बिना ही शीघ्र-चपल और आकाशगति को पाये हुए को देव कहा जाता है । अब आगे इनका जन्म, सामान्य और विशेषता से इनका वर्णन करेंगे ।
देवों का शारिरीक वर्णन १) जन्म :
जैनधर्म में दो प्रकार का जन्म माना गया है
पहला एक गति से दूसरी गति में जाने पर उत्पत्ति का जो प्रथम समय है, वह जन्म है तथा दूसरा जन्म योनि-निष्क्रमण रूप-जब जीव गर्भ से निकलता है तब होता है वह । योनि-निष्क्रमण रूप जन्म के तीन भेद हैं
१) सम्मूर्छन २) गर्भ और
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