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________________ है । भौतिक सुख का साम्राज्य स्वर्ग में छाया हुआ है। जबकि आध्यात्मिक सुख की पूर्णता मोक्ष में है । नाम की अपेक्षा से इसे 'स्वर्ग' कहते हैं । ईस्लाम इसे 'जन्नत' कहते हैं । ईसाई इसे 'हेवन' कहते हैं । जैन परंपरा में स्वर्ग को 'देवलोक' कहा जाता है । चारों गतियों में से यह भी एक गति है । संसार परिभ्रमण के दौरान जीव पुण्य कार्य करने पर स्वर्ग में जाता है, तथा पाप कार्य करने पर नरक में । जैन परंपरा में साधु-साध्वी का जब स्वर्गवास होता है, तब 'देवलोक' हो गये ऐसा कहा जाता है । इसका कारण यह है वे पंच महाव्रत का पालन करते हैं, कोई दुष्कृत नहीं करते हैं। किसी की हिंसा, निंदा, चुगली नहीं करते हैं । सभी को धर्म करने का उपदेश देते हैं । इस कारण उनकी देवगति होने की संभावना होती है । श्रमण परंपरा का साध्य मोक्ष है । जबकि ब्राह्मण परंपरा का लक्ष्य स्वर्ग है । गद्यपि दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति जैन मतानुसार मोक्ष है । जहाँ सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं । फिर भी 'स्वर्ग' वह गति है, जहाँ पर दिव्य भौतिक सुखों का साम्राज्य है। जो कि पुण्य के प्रकर्ष से यथायोग्य सीमा में उपलब्ध होता है । यद्यपि जैन मत इसे हेय (त्यागने योग्य)समझता है । उपादेय(साध्य) तो मात्र मोक्ष है। देवगति का संक्षिप्त परिचय प्रथम प्रकरण में दिया गया है । इस में रहनेवाले जीव देव होते हैं । उनके रहने के स्थान को 'स्वर्ग' कहते है । उसका विस्तार से स्वरूप, परिचय अब इस प्रकरण में देखेंगे । देव की व्युत्पत्ति परक अर्थ देव का व्युत्पत्ति परक अर्थ करते हुए उल्लेख है कि जो जीव उर्ध्वलोक मे रही है तथा उनके विमानों के (आवासों) के स्वामी होते हैं, वे देव कहे जाते सर्वप्रथम महर्षि पाणिनी कृत व्याकरण-शास्त्र में 'देव' पद की व्युत्पत्ति प्राप्त होती हैं । 'अष्टाध्यायी' में देव शब्द 'दिवु' धातु से निष्पन हुआ है "दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिपु' ।। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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