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१४) सुपात्र को अन्न, वस्त्र, पात्र आदि दान देने से । १५) धर्म के प्रति अत्यन्त राग करने से । । १६) जिनालय, उपाश्रय, आदि आयतन सेवा से । १७) अंत समय में धर्मध्यान रूप परिणति होने से ।
उपरोक्त कर्म करने से देव आयुष्य का बंध होता है । इस प्रकार चारों गतियों में जीव किन कारणों से परिभ्रमण करता है, इसका ज्ञान हो जाने के पश्चात् यह प्रश् उठता है कि ये चारों गतियाँ है, कहाँ ? जैन परंपरा इन गतियों की स्थिति लोक में मान्य करती है । अब आगामी प्रकरण में लोक विषयक जैन मान्यता का इतर मान्यताओं के साथ उल्लेख करेंगे ।
टिप्पण :
१. जैन सिद्धान्त भास्कर भा. ५ वि. पृ. २६-३० २. “There is nothing to prove that Parshva was the founder of
Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabha the first Tirthankara (as its founder) there may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara”. Indian Antiquary Vol. IX, p. 163.
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There is evidence to show that so far back as the first Century B.C, there were people who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or parshvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitnatha and Aristanemi. The Bhagavata Puran endoreses the view that Rishabha was founder of "Jainism.
-Indian Philosophy, Vol. I, p. 287 ४. दर्शन और चिन्तन, पं. सुखलालजी. पृ. ११६-११७ ५. शांकरभाष्य, पृ. ३५३ एवं योगसूत्र व सांख्यतत्त्व कौमुदी ।
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