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६. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की विस्तृत विवेचना हेतु देखें तिलोयपण्णत्ति अ.
४ गा. ३२०-३९४ ।
३२
७. तीर्थंकरो द्वारा उपदिष्ट तत्त्व श्रुत कहलाता है । श्रुतकेवली उसके पूर्ण ज्ञाता होते हैं ।
पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. ४९६ ।
९. विशेषावश्यक भाष्य १११६
१०. जैन आगम साहित्य... श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री पृ. १०
११. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तेइ ॥
८.
- भद्रबाहु, आवश्यकनिर्युक्ति ९२ ।
१२. महावीर निर्वाण का काल मुनि कल्याणविजयजी ने बुद्ध परिनिर्वाण के १४ वर्ष बाद ईसवी पूर्व ५२७ में स्वीकार किया है, ६ 'वीर निर्वाण संवत् और कालगणना', नागरीप्रचरिणी पत्रिका, जिल्द १०-११ तथा देखिये हरमन जैकोबी का 'बुद्धमहावीराज निर्वाण' आदि लेख ।
१३. आवश्यकचूर्णी २, पृ. १८७ । तथा हरिभद्र का उपदेशपद ।
१४. नन्दीचूर्णी पृष्ठ ८ ।
१५. ज्योतिष्करंडकटीका, पृष्ठ ४१; गच्छाचारवृत्ति ३; जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र १७ टीका पृष्ठ
८७ ।
१६. देखिये मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, पृष्ठ ११२
११८ ।
१७. बौद्ध त्रिपिटक की तीन संगीतियों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में आता है ।
१८. प्राकृत साहित्य का इतिहास भाग १ जगदीशचंद्र जैन पृ. १२२
१९. प्राकृत साहित्य का इतिहास भा. १ जगदीशचंद्र जैन पृ. १२३
२०. बौद्धों के विनयपिटक को भी छिपाकर रखने का आदेश है जिसमे अपयश न हो । देखिये मिलिन्दपण्ह ( हिन्दी अनुवाद पृ० २३२ )
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