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द्वीप-समुद्र आदि की नरक में व्यवस्था रत्नप्रभा भूमि को छोड शेष छः भूमियों में न तो द्वीप, समुद्र, पर्वत और सरोवर ही हैं, न गाँव शहर आदि हैं, न वृक्ष लता आदि बादर वनस्पतिकाय है, न द्विन्द्रीय से लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय है, न मनुष्य हैं और न किसी प्रकार के देव ही हैं । रत्नप्रभा का कुछ भाग मध्यलोक में सम्मिलित है, अतः उसमें द्वीप, समुद्र, ग्राम, नगर, वनस्पति, तिर्यंच, मनुष्य, देव होते हैं । रत्नप्रभा के अतिरिक्त शेष छ: भूमियों में केवल नारक और कुछ एकेन्द्रिय जीव ही हैं ।
इस सामान्य नियम का भी अपवाद है, क्योंकि उन भूमियों में कभी किसी स्थान पर कुछ मनुष्य, देव और पंचेन्द्रिय तिर्यंचो का होना संभव है । मनुष्य तो इस अपेक्षा से संभव है कि केवली समुद्घात करनेवाला मनुष्य सर्वलोकव्यापी होने से उन भूमियों में भी आत्मप्रदेश फैलाता है । वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य की भी उन भूमियों तक पहुँच है । तिर्यंचो की पहुँच भी उन भूमियों तक हैं, परंतु यह केवल वैक्रियलब्धि की अपेक्षा से ही मान्य है । कुछ देव कभी-कभी अपने पूर्वजन्म के मित्रों को दुःखमुक्त करने के उद्वेश्य से नरकों में पहुँच जाते हैं । किन्तु देव भी केवल तीन भूमियों तक ही जा पाते हैं । नरकपाल कहे जानेवाले परमाधार्मिक देव जन्म से ही पहली तीन भूमियों में रहते हैं, अन्य देव जन्म से केवल पहली भूमि में पाये जाते हैं ।
___ इस प्रकार से नरक में द्वीप, समुद्र और देव में निवास करते हैं । पूर्वकृत कौन से कर्म से नरक में कौनसी वेदना भोगनी पडती है :-७५
जैन सिद्धांत पूर्वकृत कर्म को मान्यता देता है। हर सुख-दुःख ये अपने पूर्वभव में किये पाप-पुण्य का फल है । इसी प्रकार नरक में भी पाप विपाक के कारण अत्यंत वेदना होती है । महापुराण में कौन से कर्म के कारण कौन सी वेदना उदय में आती है उसका उल्लेख किया गया है१. जो जीव पूर्व भव में मांसभक्षी थे, उन नारकियों के शरीर को बलवान नारकी ____ अपने पैने शस्त्रों से काट-काटकर उनका मांस उन्हें ही खिलाते हैं । २. जो जीव पहले बड़े शौक से मांस खाया करते थे उनका सँडासी से मुख
फाडकर, उनके गले में जबरदस्ती तपाये हुए लोह के गोले निगलाये जाते
हैं ।
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