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पर्यायात्मक है और उभयदृष्टि से उसका समग्र विचार करना चाहिए ।
रत्नाप्रभापृथ्वी को शाश्वत भी कहा है और अशाश्वत भी कहा है । इस पर शंका होती है कि शाश्वतता और अशाश्वतता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म कैसे रह सकते हैं ? यदि वह शाश्वत है तो अशाश्वत नहीं हो सकती और अशाश्वत है तो शाश्वत नहीं हो सकती । जैसे शीतत्व और उष्णत्व एकत्र नहीं रह सकते । एकान्तवादी दर्शनों की ऐसी ही मान्यता है । अतएव नित्यैकान्तवादी अनित्यता का अपलाप करते हैं और अनित्यैकान्तवादी नित्यता का आपलाप करते है संख्या आदि दर्शन एकान्त नित्यता का समर्थन करते है। जबकि बौद्धादि दर्शन एकान्त क्षणिकता-अनित्यता का समर्थन करते हैं। जैनसिद्धांत इन दोनों एकान्तों का निषेध करता है और अनेकान्त का समर्थन करता है ।७२
अनेकान्तवादी एवं प्रमाणित दृष्टिकोण को लेकर ही सूत्र में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है । अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी का आकारादि भाव उसका अस्तित्व आदि सदा से था, है और रहेगा । अतएव वह शाश्वत है । परंतु उसके कृष्णादि वर्ण पर्याय, गंधादि पर्याय, रस पर्याय, स्पर्श पर्याय आदि प्रतिक्षण पलटते रहते हैं अतएव वह अशाश्वत भी हैं । इस प्रकार द्रव्याथिकनय की विवक्षा से सातों नरकपृथ्विया शाश्वत हैं और पर्यायार्थिक नय से वे अशाश्वत हैं ।
रत्नप्रभादि की शाश्वतता द्रव्यापेक्षया कही जाने पर शंका हो सकती है कि यह शाश्वतता सकलकालावस्थिति रूप है या दीर्घकाल-अवस्थितिरूप है, इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि यह पृथ्वी अनादिकाल से सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी। यह अनादि-अनन्त है । त्रिकालभावी होने से यह ध्रुव है, नियत स्वरूप वाली होने से धर्मास्तिकाय की तरह नियत है, नियत होने से शाश्वत है, क्योंकि इसका प्रलय नहीं होता। शाश्वत होने से अक्षय है और अक्षय होने से अव्यय है और अव्यय होने से स्वप्रमाण में अवस्थित है । अतएव सदा रहने के कारण नित्य है । अथवा ध्रुवादि शब्दों को एकार्थक भी समझा जा सकता है । शाश्वतता पर विशेष भार देने हेतु विविध एकार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है।
इसी प्रकार सातों पृथ्वियों की शाश्वतता सिद्ध होती है ।
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