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३. जिन्होंने पूर्वभव में परस्त्रियों के साथ रति-क्रीडा की हो ऐसे नारकी जीवों
से अन्य नारकी आकर कहते हैं कि 'तुम्हें तुम्हारी प्रिया अभिसार करने की इच्छा से संकेत किये हुए केतकीवन के एकान्त में बुला रही है। इस प्रकार कहकर उन्हें कठोर करोंत जैसे पत्तेवाले केतकीवन में ले जाकर तपाई हुई,
लोहे की पुतलियों के साथ आलिङ्गन कराते हैं । ४. उन लोहे की पुतलियों के आलिङ्गन से तत्क्षण ही मूर्छित हुए उन नारकियों
को अन्य नारकी लोहे के चाबुकों से उनके मर्म स्थानों में पीटते हैं । उन लोहे की पुतलियों के आलिंगन काल में ही जिनके नेत्र दुःख से बंद हो गये हैं तथा जिनका शरीर अंगारों से जल रहा है, ऐसे वे नारकी उसी क्षण जमीन
पर गिर पड़ते हैं । ५. जो जीव पहले बड़े उद्दण्ड थे, उन्हें वे नारकी तपाये हुए लोहे के आसन पर बैठाते हैं और विधिपूर्वक पैने काटोके बिछौने पर सुलाते हैं ।
७. नैरयिकों की वेदना
१. नरकावासों का आकार तथा वेदना नरकावास मध्य में गोल है और बाहर से चतुष्कोण हैं । पीठ के ऊपर वर्तमान जो मध्यभाग है उसको लेकर गोलाकृति कही गई है तथा सकलपीठादि की अपेक्षा से तो आवलिका प्रविष्ट नरकावास त्रिकोण, चतुष्कोण संस्थान वाले कहे गये हैं और जो पुष्पावकीर्ण नरकावास हैं वे अनेक प्रकार के हैं-सूत्र में आये हुए 'जाव असुभा' पद से ६ टिप्पण में दिये पाठ का संग्रह हुआ है, जिसका अर्थ निम्न प्रकार है
अहेरवुरप्पसंठाणा-ये नरकावास नीचे के भाग से क्षुरा (उस्तरा) के समान तीक्ष्ण आकार के हैं । इसका अर्थ यह है कि इन नरकावासों का भूमितल चिकना या मुलायम नहीं हैं, किन्तु कंकरों से युक्त है । जिनके स्पर्शमात्र से नारकियों के पाँव कट जाते हैं-छिल जाते हैं और वे वेदना का अनुभव करते हैं ।
णिच्चंधयारतमसा-उन नरकावासों में सदा गाढ अंधकार बना रहता है । तीर्थंकरादि के जन्मादि प्रसंगों के अतिरिक्त वहाँ प्रकाश का सर्वथा अभाव होने से जात्यन्ध की भांति या मेघाच्छन्न अर्धरात्रि के अन्धकार से भी अतिघना अंधकार वहाँ सदाकाल व्याप्त रहता है, क्योंकि वहाँ प्रकाश करनेवाले सूर्यादि हैं ही नहीं । इसी
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