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________________ २०१ I खेर के अंगारे जैसा होता है । ये अग्नि के जैसे अधिक कष्ट उत्पन्न करते हैं । उनकी एक अंतर्मुहूत में छह पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद जैसे ही वे चलते हैं, तब उनकी गति गधे और ऊँट आदि की गति के जैसी अत्यन्त श्रमजनक होती है । उनको तपे हुए लोहे पर पैर रखकर चलना पड़ता है, जो कि अत्यंत दुःखदायक होता है । इस प्रकार नारक के जन्म (उपपात) के विषय में अलग-अलग मत मिलते हैं । मूल आगमों में नारकों के जन्म के विषय में कुछ लिखा मिलता नहीं है । २. नैरयिकों का शरीर जिस प्रकार हमारा शरीर हाड, मांस, चाम, रूधिर आदि से बना होता है, उसी प्रकार नैरयिक जीवों का भवस्वभाव से ही वैक्रिय शरीर होता है । इनका औदारिक शरीर नहीं होता । उनमें तीन शरीर होते हैं- वैक्रिय, तैजस और कार्मण । जिस प्रकार श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रूधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, माँस, केश, अस्थि, चर्म रूप, अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ नारकियों का वैक्रियक शरीर होता है । अर्थात् वैक्रयिक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त बीभत्स सामग्री - युक्त होता है । १६ नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया है । वे नारक के जीव चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र, वन एवं पर्वत की आग, तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, 1. कुत्ता, बिल्ली और सिंह इन पशुओं के अनुरूप परस्पर सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। अन्य नारकी जीव गहरे बिल, धुआँ, वायु अत्यन्त तपा हुआ खप्पर, यंत्र चूल्हा, कण्डनी (एक प्रकार का कुटनेका उपकरण), चक्की और दव (बर्छा) इनके आकाररूप अपने शरीर की विक्रिया करते हैं । उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कीड़ोंसे युक्त सरित, ग्रह, कूप और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं । १८ नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती । अर्थात् ये अपने शरीर से पृथक् रूप धारण नहीं कर सकते । सातवीं पृथ्वी में कीडो का रूप छठी नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिण्डिपाल, आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है । सातवाँ नरक में Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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