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यह अन्तर है। २. मधुमक्खि के छत्ते के समान उपपात
तिलोयपण्णत्ति में जहाँ बिल में नारकों का जन्म बताया, वहाँ महापुराण में नारकी के जन्म विषयक उल्लेख है कि नरक गति में सभी पृथ्वियों में नारकी के जीव मधुमक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की और मुख करके पैदा होते है। वे जीव पापकर्म के उदय से अन्तर्मुहूर्त में ही दुर्गन्धित, घृणित, देखने में अयोग्य और बुरी आकृतिवाले शरीर की पूर्ण रचना कर लेते हैं । और जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते शाखा टूट जानेपर नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार वे नारकी जीव शरीर की पूर्ण रचना होते ही उस उत्पत्तिस्थान से जलती हुई अत्यन्त दुःसह नरक की भूमिपर गिर पड़ते हैं । पर वहाँ की भूमिपर अनेक तीक्ष्ण हथियार गड़े हुए रहते हैं, नारकी उन हथियारों की नोंकपर गिरते हैं। जिस से उनके शरीर की सब सन्धियां छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और इस दुःख से दुःखी होकर वे जीव वहाँ रोने-चिल्लाने लगते हैं । वहाँ की भूमी की असह्य गर्मी से संतप्त होकर व्याकुल हुए नारकी गम भाड़ में डाले हुए तिलों के समान पहले तो उछलते हैं और नीचे गिर पड़ते हैं । वहाँ पड़ते ही पहले जन्म लिए हुए अतिशय क्रोधी नारकी भयंकर तर्जना करते हुए तीक्ष्ण शस्त्रों से उन नवीन नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते है । वे जहाँ तहाँ बिखर जाते हैं और फिर क्षणभर में मिलकर एक हो जाते हैं । इसकी उपमा देते हैं कि जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएँ का जल फिर से भी मिल जाता है, उसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया छिन्न-भिन्न हुआ नारकियों का शरीर भी स्वतः मिल जाता है ।१४ यही तो वैक्रिय शरीर की विशेषता है । ३. कुंभि में जन्म :
___'महापुराण' में नारकियों का जन्म छत्तों में बताया तो 'लोकप्रकाश' में नैरयिक के जन्म विषयक उल्लेख है कि नारकियों की उत्पत्ति कुंभि में होती है ।१५ प्रथम पृथ्वी में ये कुंभियाँ वज्र की बनी होती हैं। जो कि खिड़की के आकार की अचित्त योनि वाली होती है । यह नारकियों का उत्पत्तिस्थान है। अन्य शेष छह नरकभूमियों में इन कुंभियों का आकार गोल गवाक्ष के समान होता है। वहाँ उत्पन्न होकर पुष्ट शरीरवाले ये नारक कष्टपूर्वक नीचे पड़ते हैं। उनका रत्नप्रभा में उत्पत्ति प्रदेश तो हिमालय पर्वत के समान एकदम शीतल होता है, परंतु शेष पृथ्वियों में
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