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इस अधोलोक में नारकों का निवास स्थान है ।
नैरयिक का स्वरूप 'धर्म से सुख प्राप्त होता है, और अधर्म से दुःख'
यह सत्य निर्विवाद है । जैन मतानुसार जो जीव हिंसा करने में आसक्त रहते हैं, झूठ बोलने में तत्पर होते हैं, चोरी करते हैं, परस्त्री गमन करते हैं, बहुत
आरम्भ और परिग्रह रखते हैं, ऐसे जीव पाप के भार से नरक में उत्पन्न होते हैं । परंतु उनका जन्म वहाँ किस प्रकार होता है ? मनुष्य की भांति या देव की तरह अथवा उससे भी भिन्न ? अब हम वह देखें
जन्म :- देवों के सदृश नैरयिक का जन्म भी उपपात से होता है । उसके जन्म के विषय में अनेक मत हैं
१. तिलोयपण्णत्ती के अनुसार ये बिल में उत्पन्न होते हैं ।
२. महापुराण में कथन है कि ये मधुमक्खियों के छत्ते के समान लटकते उत्पन्न होते हैं ।
३. लोक-प्रकाश के मतानुसार कुंभि में इनका उपपात होता है । १. बिल में उपपात :
तिलोयपण्णत्ती में नारक के उपपात-जन्म विषयक उल्लेख है कि नारकी के जीव पाप से बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्तमात्र काल में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है । पश्चात् वह नारकी जीव भय से कांपता हुआ बड़े कष्ट से चलना प्रारंभ करता है, उस समय वह छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है । उसी क्षण जिस प्रकार दुष्ट व्याघ्र मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है, उसी प्रकार वहाँ पूर्व में जन्म लिये हुए क्रूर नारकी उस नवीन नारकी को देखकर धमकाते हुए उसकी और दौड़ते हुए टूट पड़ते हैं ।
उछलने का प्रमाण :- वहाँ उस नरक पृथ्वी में गिरते समय वे जो उछलते हैं, उनके उछलने का प्रमाण प्रत्येक पृथ्वी में अलग अलग है । प्रथम पृथ्वी में जीव ७ उत्सेध योजन और ६ हजार ५०० धनुषप्रमाण ऊपर उछलता है, इसके आगे शेष पृथ्वियों में क्रमसे उत्तरोत्तर दुगुना-दुगुना प्रमाण होता जाता है ।१२ नारकी जन्म के समय उछलते हैं, जब कि देव शय्या पर ही उठ बैठते हैं ।
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