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अन्यत्र कहा गया है कि जहाँ काया के अन्त होने बाद आवाज करते हुए मनुष्यों को योग्यतानुसार क्रमशः अपने स्थानपर आकारित किये जाते है उस जगह को नरक कहते हैं ।
उक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि नरक दुःखों की खान है, जो कि तीव्र पापोदय का ही अशुभ परिणाण है ।
लोक में नरक का स्थान :
जैन मतानुसार लोक के स्वरूप के लिये उपमा दी है कि लंबे समय से ऊंची श्वासें लेनेवाला तथा वृद्धावस्था से थका हुआ कोई पुरुष कमरपर दो हाथ रखकर खड़ा हो, वैसा यह लोक है । यह लोक शाश्वत है । किसीने उसको धारण किया नहीं है । किसी ने बनाया नहीं है । यह स्वयंसिद्ध है । यह आश्रय और आधार बिना आकाश में स्थित है । ऐसे लोक के चौदह विभाग है । उसके प्रत्येक विभाग को रज्जू अथवा राज कहते है ।
सातवीं नारकी के तल से उसका प्रारंभ होता है, और सिद्धशिला के पास समग्र लोक का अंत होता हुआ चौदह राजलोक पूरा होता है । लोक के तीन विभाग है : १) अध:, २) मध्य, ३) उर्ध्व ।
उर्ध्वभाग में क्षेत्र प्रभाव से शुभ परिणामी द्रव्य होने से उसको उर्ध्वलोक कहते हैं। मध्य में होने से मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों का संभव होने से मध्यलोक कहते हैं । और अधः नीचे के भाग में होने से उसी प्रकार बहुलता से द्रव्यों के अशुभ परिणाम का संभव होने से अधोलोक कहते हैं । '
रत्नप्रभा नारकी के उपर के दो क्षुल्लक प्रस्तर में मेरू के अंतर्गत कंद के उर्ध्वभाग में आठ प्रदेशों वाला रूचक प्रदेश है । जो दो प्रस्तर हैं उसमें उपर के प्रस्तर में गाय की छाया (आंचल की) जैसे चार आकाश प्रदेश हैं । उसी प्रकार नीचे के प्रस्तर में भी चार प्रदेश हैं । इस प्रकार से नीचे - उपर रहे हुए इन आठ प्रदेशों को "चोरस रूचक" कहते हैं ।"
इन आठ रूचक प्रदेशों से ९०० योजन उपर और ९०० योजन नीचे का भाग मध्यलोक हैं ।
- रूचक से ९००
- रूचक से ९००
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योजन पश्चात् उर्ध्वलोक है ।
योजन पश्चात् नीचे का अंत समय का अधोलोक है 10
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