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पद्मवरवेदिका सभी दिशा-विदिशाओं में चारों ओर से एक एक हेमजाल (स्वर्णमय माल्यसमूह) से जाल से, किंकणी(घुघरू) घंटिका, मोती, मणि, कनक (स्वर्ण-विशेष) रत्न और पद्म (कमल) की लंबी-लंबी मालाओं से परिवेष्टित है अर्थात् उस पर लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं । शाश्वत-अशाश्वत :
द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वह शाश्वत है । परन्तु वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श, पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत है। इसलिए वह शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। काल
पद्मवरवेदिका पहले भी थी, अब भी है, और आगे भी रहेगी । इस प्रकार त्रिकालावस्थायी होने से वह पद्मवरवेदिका ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है ।१८७
सुधर्मा सभा का वर्णनसूर्याभदेव के मुख्य प्रासादावतंसक के ईशान कोन में सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और बहत्तर योजन ऊँची सुधर्मा नामक सभा है । यह सभा अनेक सैंकडों खंभों पर सन्निविष्ट यावत् अप्सराओं से व्याप्त अतीव मनोहर है।
सुधर्मा सभा के पूर्व, दक्षिण, और उत्तर दिशा में एक-एक द्वार है । वे द्वार ऊँचाई में सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और उतने ही प्रवेश मार्ग है । यह द्वार श्वेत वर्ण के हैं । श्रेष्ठ स्वर्ण से निर्मित शिखरों एवं वनमालाओं से अलंकृत हैं, आदि वर्णन पूर्ववत् है ।
उन द्वारों के ऊपर स्वस्तिक आदि आठ-आठ मंगल ध्वजायें और छत्रातिछत्र विराजित हैं-शोभायमान होते हैं ।
इस द्वारों के आगे सामने एक-एक मुखमंडप हैं । ये मंडप सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और ऊँचाई में कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे है । सूधर्मा सभा के समान इनका शेष वर्णन उपरोक्त है ।।
- इन मंडपों के भूमिभाग, चंदेवा और ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाओं, छत्रातिछत्र आदि का भी वर्णन है । इन मुखमंडपो में से प्रत्येक के आगे प्रेक्षागृहमंडप बने हैं । इन मंडपों के द्वार का वर्णन उपरोक्त हैं ।
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