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में जाता है। वहाँ पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है । वहाँ से नन्दापुष्करिणी जाकर कमल लेता है और सिद्धायतन की तरफ सभी देव-देवियों के साथ वाद्यों की गूंजती हुई ध्वनि के साथ जाता हैं । वहाँ की जिनप्रतिमाओं को प्रणाम करके, अष्टप्रकारी पूजा करता हैं जैसे-जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दिपक, अक्षत आदि से पूजा करके अरिहन्त भगवंतो की स्तुति और सिद्वायतन का मध्यभाग है वहाँ भी अष्टप्रकारी पूजा करता है । फिर मुखमण्डप के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा द्वारों के विशेष पूर्व रीति से क्रमशः चैत्यस्तूप, जिनप्रतिमा, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज और नन्दापुष्करिणी की पूजा-अर्चना करता है । वहाँ से सुधर्मा सभा की और सभी साथ जाते हैं सिंहासन प्रदक्षिणा देकर उसके पूर्व दिशा में मुख करके बैठकर अपने सभी देवों को कौन-कौन से कार्य करने है। उसकी आज्ञा प्रदान करता है । (इस का विस्तार से वर्णन ४१७ से ४२२ तक समझना ।)
विजयदेव की एक पल्योपम आयु और सामानिक देवों की भी एक पल्योपम स्थिति कही है।
इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महा ऋद्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला, महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है ।१८४
वैजयंत आदि द्वार वैजयंत :- जम्बुद्वीप नामक द्वीप में मेरूपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर उस द्वीप की दक्षिण दिशा के अन्त में तथा दक्षिण दिशा के लवणसमुद्र से उत्तर में जम्बूद्वीप नामक द्वीप का वैजयन्त द्वार है। यह आठ योजन ऊँचा और चार योजन चौड़ा है-आदि सब वक्तव्यता जो विजयद्वार और विजय देव की वही समझना ।
जयंत :- जम्बूद्वीप के मेरूपर्वत के पश्चिम में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की पश्चिम दिशा के अंत में तथा लवणसमुद्र के पश्चिमाई के पूर्व में शीतोदा महानदी के आगे जम्बूद्वीप का जयन्त नाम द्वार है । इसका वर्णन उपरोक्त अनुसार जानना।
अपराजित :- मेरूपर्वत के उत्तर में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के उत्तरार्ध के दक्षिण में जम्बुद्वीप का अपराजित नाम का द्वार है । इसका वर्णन भी विजयदेव के समान हैं।
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