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के सरसों को लेते है । फिर पदमग्रह और पुण्डरीकद्रह का जल और शतपत्र कमलों को लेते हैं । वहाँ से शब्दापाति और माल्यवंत वट्टवैताढय आदि पर्वतों पर के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों, सर्वोषधि और सिद्धार्थकों को लेते है । वहाँ से नन्दनवन में से श्रेष्ठ फूल आदि सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं । वहाँ से पण्डकवन में से कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । उसके बाद सभी आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वदिशा के द्वार से निकलते हैं और उत्कृष्ट दिव्य देवगति से चलते हुए तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य होते हुए विजया राजधानी में आते हैं । विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेक सभा में विजयदेव के पास आते हैं और हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय शब्दों से बधाते हैं । वे महार्थ, महार्ध और विपुल अभिषेक सामग्री को प्रस्तुत करते हैं ।१८३ (इसका विस्तार वर्णन जीवाजीवाभिगम सूत्र भा.१ पृ० ४०५ पर है ।)
अभिषेक के अवसर पर रहनेवाले देव का परिवार
आभियोगिक देव आने बाद चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषदाओं के (८ हजार, १० हजार, १२ हजार) देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियाँ आदि अनेक परिवार सहित अपनीअपनी विविध कला, अनेक साम्रगी वस्तु लेकर, विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषेक करते हैं ।
(कौन से देव ने कौनसी साम्रगी, वस्तु, कला, प्रस्तुत करी उसका विस्तार से वर्णन जीवाजीवाभिगम सूत्र भा. १ पृ. ४०६ से ४१० तक वर्णन दिया गया
तदनन्तर सामानिक देव, अग्र महिषियाँ, आत्मरक्षक देव और बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियाँ ने कलश से अभिषेक करके उनके लिए शुभ कामना के विविध वाक्यों से जोर-जोर से जय जय शब्दों का प्रयोग करते हैं-जय जयकार करते हैं ।
उसके बाद विजयदेव अभिषेक करके सिंहासन से उठकर अंलकार सभा में जाता है। वहाँ उनकी चंदन पूष्पा आदि से पूजा देव करते है । केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार से परिपूर्ण होकर वह व्यवसाय सभा
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