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सभी द्वारों के ऊपर ध्वजाओं, छत्रातिछत्रों से शोभित स्वस्तिक आदि आठ-आठ मंगल से सूर्याभ विमान के चार हजार द्वार शोभित होते हैं । १६८ विमानों में वनखण्डों का वर्णन
सूर्याभविमान के चारों दिशा में पाँच सौ - पाँच सौ योजन के अन्तर पर वनखंड आये हुए हैं । वे निम्न लिखित...
१) पूर्व दिशा में
अशोक वन
२) दक्षिण दिशा में
३) पश्चिम दिशा में
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सप्तपर्ण वन
चंपक वन
४) उत्तर दिशा में
आम्रवन हैं ।
यह प्रत्येक वनखंड साढ़े बारह लाख योजन से कुछे अधिक लम्बे और पाँच सौ योजन चौड़े हैं । प्रत्येक वनखंड एक-एक परकोटे से परिवेष्टित - घिरा
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इन वनखंडों के वर्ण, आभा, वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई जड़ो से युक्त हैं, इत्यादि समग्र वर्णन औपपातिक सूत्र के वनखंडो के वर्णन अनुसार ही है ।
वनखंडवर्ती वापिकाओं का वर्णन
वनखंडो में स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-छोटी चौरस वापिकायेंबावड़ियाँ, गोल पुष्करिणियाँ, दीर्घिकायें (सीधी बहती नदियाँ), गुंजालिकाये (टेड़ी-तिरछी-बांकी बहती नदियां), फूलो से ढँकी हुई सरोवरों की पंक्तियाँ, पानी के प्रवाह के लिये नहर द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए तालाबों की पंक्तियाँ एवं कूपपंक्तियाँ बनी हुई हैं ।
सभी वापिकायें बाहर से स्फटिक और मणि अतीव निर्मल हैं । इनके तट रजतमय हैं और तटवर्ती भाग अत्यन्त सम- चौरस हैं । ये सभी वज्ररत्न रूपी पाषाणों से बने हुए हैं । इसके तलभाग तपे हुए स्वर्ण से बने हैं और उसके उपर शुद्ध स्वर्ण और चांदी की बालू बिछी हैं । तटों के उपर ऊँचे प्रदेश वैडूर्य और स्फटिक मणि-पटलों के बने हैं । घाटों पर अनेक प्रकार की मणियाँ जड़ी है । चारों काने वाली कुपिकाओं और कुओं में नीचे अगाध एवं शीतल जलाशय
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